भारतीय संविधान एवं राज-व्यवस्था
Geetanjali Academy- By Jagdish Takhar
प्रश्न:- प्रस्तावना भारतीय संविधान के दर्शन को कैसे सूचित करती है, समझाइये। (100 शब्द)
अथवा
प्रस्तावना के अंतर्गत जिन आदर्शों एवं उद्देश्यों की घोषणा की गई थी वे भारत में सामाजिक क्रांति के वाहक हैं, समीक्षा कीजिए। (100 शब्द)
उत्तर – प्रस्तावना संविधान के दार्शनिक भाषा के रूप में जहाँ एक तरफ संविधान की सत्ता को सूचित करती है, वहीं दूसरी तरफ उन आदर्शों, मूल्यों व उद्देश्यों का ज्ञान प्रदान करती है जिनकी प्राप्ति करना संविधान का मूल ध्येय है। प्रस्तावना के अंतर्गत भारत की राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को प्रभुसत्ता के साथ संयुक्त कर दिया गया है और लोकतांत्रिक प्रणाली के माध्यम से इसे प्राप्त करना उद्देश्य के रूप में घोषित किया गया है। प्रस्तावना में लोकतांत्रिक मूल्यों के रूप में स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुता की जो संकल्पना प्रस्तुत की गई है वह अंबेडकर के यूनियन ऑफ ट्रिनिटी के अंतर्गत सामाजिक लोकतंत्र के विचार को समर्थन देता है जिसे राजनीतिक लोकतंत्र की पूर्व शर्त माना गया है।
प्रस्तावना के अंतर्गत मानव सभ्यता के सर्वोच्च सद्गुण अर्थात न्याय का व्यापक उल्लेख किया गया है और सामाजिक न्याय को प्रस्तावना में स्थान दिया गया है। सामाजिक न्याय का यह आदर्श पिछले सात दशकों से भारतीय राजनीति का मार्गदर्शन कर रहा है और इसने लोक कल्याणकारी राज्य के विचार को साकार किया है।
(संत ऑगस्टाइन – न्याय के बिना समाज एक डाकुओं का झुंड है)
प्रस्तावना में दिया गया पंथनिरपेक्षता का विचार जहाँ एक ओर राज्य धर्म का निषेध करता है वहीं विभिन्न धर्मों को संरक्षा प्रदान करता है क्यों कि सर्वधर्मसमभाव भारत की पंथनिरपेक्षता का आधार है।
प्रस्तावना में दिया गया समाजवाद गाँधीवादी दर्शन पर आधारित है जिसमें शांतिपूर्ण एवं अहिंसक साधनों से समाजवाद लाने का प्रयास किया गया है। जैसा कि डी.एस. नकारा बनाम भारत संघ में कहा गया है कि भारतीय समाजवाद गाँधीवाद और मार्क्सवाद का मिश्रण है जिसका झुकाव गाँधीवाद की ओर है।
इस प्रकार संविधान की प्रस्तावना न केवल संविधान की सर्वोच्च सत्ता के रूप में घोषणा करती है वरन् प्रस्तावना जैसा कि केशवानन्द भारती वाद में कहा गया है कि जहाँ संविधान की भाषा संदिग्ध और स्पष्ट हो वहाँ संविधान की व्याख्या में प्रस्तावना का सहारा लिया जा सकेगा, संविधान को आधार भी प्रदान करती है।
अथवा
प्रस्तावना के अंतर्गत न केवल शाब्दिक रूप से बल्कि भावनात्मक और दार्शनिक रूप से ऐसे आदर्श स्थापित किये गये हैं जो पिछले 7 दशकों में भारतीय राजनीति शासन एवं प्रशासन का व्यापक रूप से मार्गदर्शन करते आए हैं और इसीलिये भारतीय संविधान के विषय में कहा जाता है कि वह केवल विधिक संग्रह नहीं है वरन् सामाजिक आर्थिक परिवर्तनों का विस्तृत घोषणा पत्र है (ग्रेनविल ऑस्टिन)।
प्रस्तावना में सामाजिक न्याय एवं सामाजिक लोकतंत्र का जो समन्वय स्थापित करने का प्रयास है उसने लोक कल्याणकारी राज्य की भारतीय अवधारणा का क्षितिज विस्तृत कर दिया है जिसके कारण भारत की विभिन्न योजनाओं एवं कार्यक्रमों में जीवन की आधार भूत आवश्यकताओं से लेकर आवश्यक सुविधाओं तक उपलब्ध कराना इस राज व्यवस्था का ध्येय रहा है।
प्रस्तावना में कालांतर में शामिल किये गये पंथनिरपेक्ष व समाजवाद जैसे तत्व ना केवल भारतीय समाज के परंपरागत आदर्शों को बताते हैं वरन् एक विकसित कहे जाने वाले राज्य जिसमें सामाजिक आर्थिक परिवर्तन के बहुत सारे पक्ष विद्यमान हों, वहाँ ये तत्व निरंतर व्यवहार में आते हैं। पंथनिरपेक्षता ने जहाँ भारतीय नीति निर्माताओं को ऐसी नीतियाँ अपनाने हेतु प्रेरित किया, जिसमें अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक जैसे विवादों को स्थान ना मिले बल्कि एक ऐसी सामाजिक (Composite) संस्कृति निर्मित हो सके जहाँ राष्ट्र की प्रगति एवं समृद्धि में हर संप्रदाय अपना योगदान दे सके।
समाजवाद 1990 के पहले तक भारत की राजकीय नीतियों का केन्द्र बना रहा और सार्वजनिक उद्यम एवं निजी लाभ के स्थान पर सरकारी सेवा व सहायता को प्रभुखता प्रदान की गई और यदि किसी प्रकार की सामाजिक-आर्थिक असमानता विद्यमान रही भी तो विभिन्न संशोधनों व क़ानूनों के माध्यम से असमानता को दूर करने का प्रयास किया गया।
निःसंदेह यह सत्य है कि प्रस्तावना में घोषित आदर्श व मूल्य सामाजिक आर्थिक परिवर्तन के वाहक हैं परन्तु इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना शेष है। क्योंकि 1990 के दशक से वैश्वीकरण ने राज्य के उद्देश्यों में ज़बरदस्त परिवर्तन किया है और साथ ही राज्य का सामना कुछ नयी प्रकार की चुनौतियों से हुआ है। जिनके समाधान के लिये प्रस्तावना में घोषित आदर्शों का व्यापक संदर्भ प्राप्त करना होगा तभी ये आदर्श भारत में सामाजिक आर्थिक परिवर्तन के वास्तविक वाहक सिद्ध होंगे।
प्रश्न:- भारतीय संविधान पर पड़ने वाले विदेशी प्रभावों का विस्तृत विवेचन कीजिए ?
अथवा
क्या भारतीय संविधान उधार ली गई वस्तुओं का संकलन मात्र है अथवा इससे कुछ अधिक है उदाहरण सहित कथन की पुष्टि कीजिए ।
उत्तर. भारतीय संविधान दीर्घ ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया का परिणाम है और अपने निर्माण से लेकर क्रियान्वयन तक अवस्था में इसने विश्व के विभिन्न दृष्टिकोाों को संग्रहित अवश्य किया है परन्तु उन सब का प्रयोग मौलिक दृष्टि को विकसित करने में किया है।
ब्रिटेन के प्रभाव के परिणाम स्वरूप भारतीय संविधान स्वभाविक रूप से ब्रिटिश काल में बने अधिनियमों और ब्रिटेन की व्यवस्था की सर्वाधिक मात्रा ग्रहण करता दिखाई देता है। फिर चाहे वह संसदीय लोकतंत्र हो , प्रधानमंत्री और मंत्री परिषद हो या विधि का शासन हो परन्तु ब्रिटेन के विपरीत भारतीय संविधान में विभिन्न विषयों को ना केवल लिपिबद्ध किया गया है, बल्कि वंशानुगत व्यवस्था के स्थान पर निर्वाचन पर आधारित विशाल तंत्र का विकास किया गया है। इसके अतिरिक्त उपबन्धों, प्रावधानों को युक्ति युक्त/तार्किक बनाने के लिए अपवादों व प्रतिबंधों का समावेश किया गया।
भारतीय संविधान पर अमेरिकी संविधान के प्रभाव से मौलिक अधिकार एवं न्यायिक व्यवस्था को ग्रहण किया गया लेकिन मौलिक अधिकारों को अत्यधिक विस्तृत स्वरूप देते हुए अधिकारों के विषयों में संरक्षामूलक भेदभाव को अपनाया गया इसलिए यह अधिकार एक वर्ग विशेष का विशेषाधिकार न बनकर सामूहिक रूप से उपलब्ध हो गया,
यद्यपि अमेरिकी संविधान में न्यायिक व्यवस्था न्याय की भावना को स्थान देती है परंतु भारतीय संविधान न्याय के प्रक्रियागत पक्ष की अनदेखी नही करता है।
भारतीय संविधान संघवाद के प्रतिमान को स्वीकार तो करता है परंतु इस संदर्भ में कनाड़ा के संघ (यूनियन) के अधिक निकट है, क्योंकि भारतीय राष्ट्रवाद संघ व राज्यों के मध्य संघर्ष और सहयोग के मध्य विकसित होता है, इसलिए जहा राज्यों को स्वायत्ता दी गई है वहीं संघ के नियंत्रण को प्रभावशााली बनाया गया है।
भारतीय संविधान में और भी प्रावधान जैसे संविधान संशोधन (दक्षिणी अफ्रीका), आपातकालीन उपबन्ध (जर्मनी), मौलिक कर्तव्य (सोवियत संघ) इत्यादि से लिए गए है। परंतु उनका विवेचन भारतीय व्यवस्था की प्रांसगिकता और चर्चा का विषय बनाया गया है। जिसका प्रभाव यह है कि संशोधन के विषय पर विधानमंडल निरंकुश नही है, और आपातकाल विशिष्ट परिस्थितियों में लगाये जाने योग्य । मौलिक कर्तव्यों का विचार भी भारत की सामाजिक नैतिक जीवन से जुड़ा हुआ विचार ही प्रतीत होता है।
निष्कर्ष रूप में जैसा की अम्बेडकर का कथन है कि संविधान के मौलिक सिद्धान्तों में अन्तर विरोध नही पाये जाते है और संविधानों से प्रेरणा प्राप्त करना संविधान की कमजोर नही परिपक्ता की निशानी है।
प्रश्न:- भारतीय संविधान लोक कल्याणकारी राज्यों के आदर्शों को प्राप्त करने वाला एक समग्र एवं जीवन्त दस्तावेज है। संवैधानिक प्रावधानों के संदर्भ में उक्त कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर.भारतीय संविधान अपने निर्माणण से लेकर अब तक विभिन्न व्याख्याओं के अंतर्गत एक नये नमूने का संविधान प्रस्तुत करता है जिसका आधार राज्य के लोक कल्याणकारी स्वरूप का समग्र रूप से पोषण एवं विकास करना है। संविधान के अंतर्गत इसके दार्शनिक – भावनात्मक भागो अर्थात प्रस्तावना, अधिकार, नीति निर्देशक तत्व और मौलिक कर्तव्यों लोक कल्याणकारी भावना को प्रतिबिम्बित करते है।
प्रस्तावना के अंतर्गत लोक कल्याणकारी राज्य के मूल आधारो जिनसे ना केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था सुदृढ़ होती वरन् व्यवस्था के विभिन्न अंगों में सद्भाव पैदा होता है इसलिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता एवं भातृत्व को प्रस्तावना में विस्तृत संदर्भो में प्रस्तुत किया गया है। इसीलिए हर अधिकार विस्तृत विवेचन लिए हुये है। इसके अतिरिक्त अधिकारों के माध्यम से व्यष्टि तथा समष्टि के मध्य विरोध के विषय दूर करने का प्रयास किया गया है। साथ ही हर अधिकार को विभिन्न आधारो पर परखने का प्रयास किया गया है चाहे इसके लिए राज्य को संरक्षामूलक विभेदकारी व्यवहार को प्रचलन में लाना पड़ा हो, अन्ततोगत्वा इसका उद्देश्य भी सामूहिक जनकल्याा है।
राज्य नीति के निदेशक तत्व तो लोक कल्याणकारी राज्य का जीवन्त चित्र प्रस्तुत करते है। और इसके विविध प्रावधानों में समाज के हर वर्ग, हर समूह और सजीव तथा निर्जीव हर पक्ष पर ध्यान देने का प्रयास किया है। ये तत्व लोककल्यााकारी राज्य में नैतिक मानवतावादी दर्शान को प्रकट करते है। ना केवल व्यक्तिगत रूप से बल्कि समुहो की भलाई के लिए इन तत्वों ने ऐसा प्रभाव डाला है कि ये तत्व प्रशासको की आचार संहिता बन गऐ है और न्यायिक सक्रियता का प्रारंभिक बिंदु भी।
मौलिक कर्तव्य वास्तविक रूप में शासन और जनसामान्य के मध्य उन सम्बन्धों के सूचक है जिससे दायित्व की संकल्पना जन्म लेती है और यदि व्यक्ति कर्तव्यों के पालन में रूचि दिखाते है तो शासन और प्रशाासन भी जन सुरक्षा और जन समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनता है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता कि भारतीय संविधान लोककल्यााकारी राज्य के प्रत्येक आयाम को ना केवल स्थान देता है वरन् लोककल्याा की भावना को भी सुनिश्चित करने का प्रयास करता है जिससे हर व्यक्ति संवैधानिक आवरण के भीतर सुरक्षित और संवेदनशील प्रशासन को महसूस कर सकता है।
मौलिक अधिकार एवं राज्य के नीति निदेशक तत्व
प्रश्न:- मौलिक अधिकारों को परिभाषित करते हुए इनकी प्रकृति एवं महत्व बताइये।
प्रश्न:- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र का प्राण है, शर्त ये है कि वह तार्किक हो। (तर्कसंगत)
प्रश्न:- अनुच्छेद-21 में मानवाधिकार के क्षेत्र को विस्तृत कर दिया है, टिप्पणी दीजिए।
प्रश्न:- मूल अधिकारों के संरक्षा के लिए संवैधानिक रिटों का उल्लेख कीजिए।
प्रश्न:- राज्यनीति के निदेशक तत्व लोक कल्याणकारी राज्य के वाहक हैं, सौदाहरण समझाइये।
प्रश्न:- मौलिक अधिकार एवं नीति निदेशक तत्वों के संबंधों की व्याख्या करते हुए संसद एवं न्यायपालिका के टकराव को बताइये।
उत्तर 4 – मौलिक अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के समग्र विकास हेतु आवश्यक दशाओं एवं सुविधाओं के पर्याय है।
अथवा
अधिकार व्यक्ति के सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ हैं जिनके बिना कोई व्यक्ति पूर्ण आत्मविकास की आशा नहीं कर सकता है।
मौलिक अधिकारों की प्रकृति सर्वसमावेशी, कर्तव्यों से अनुप्प्राणित, प्रतिबंधों में व्यावहारिकता, क़ानूनों से संरक्षित एवं अहस्तांतरणीय है।
अधिकारों का महत्त्व इस बात में निहित है कि ये व्यक्तित्व के विकास का साधन होने के साथ-साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था के निर्माण और उसके विकास को संभव बनाते हैं अतः यह कहा जाता है कि किसी भी लोकतंत्र की पहचान उसके द्वारा अनुरक्षित किये गए अधिकारों से होती है साथ ही मौलिक अधिकार मानवीय जीवन की गरिमा एवं मानव के संतुलित विकास की सभी दशाओं को स्थापित करने के कारण महत्वर्पूण हैं।
उत्तर 5 – अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा और मानवीय गरिमा के दृष्टिकोण से महत्वर्पूण हैं क्योंकि लिखित, मौखिक एवं सांकेतिक रूप से की जाने वाली अभिव्यक्ति ना केवल व्यक्ति विशेष के विचारों का प्रसार करती है बल्कि उससे लाभान्वित होने वालों के दृष्टिकोण को भी विस्तृत करती है अतः यह माना जाता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं वरन् उस पर लगाए गए प्रतिबंध क्रांति को जन्म देते हैं, अतः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महान समर्थक जे.एस. मिल ने तर्क दिया था कि किसी व्यक्ति की राय समाज की राय से अलग होने पर समाज द्वारा उसे चुप करा देना निरंकुशता की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देगा।
लेकिन अभिव्यक्ति की ऐसी स्वतंत्रता का महत्व उसी समय है जबकि वह तार्किक प्रतिबन्धों एवं युक्तियुक्त/उचित वर्गीकरण के साथ हो अतः भारतीय संविधान के अनु. 19 में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ उस पर लगने वाले प्रतिबंधों का आधार भारतीय प्रभुता, एकता, अखंडता, राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था, मानहानि, अवमानना जैसे विषयों में स्पष्ट किए हैं, दूसरे शब्दों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता स्वछन्दता में परिवर्तित ना हो और इसका संतुलित उपयोग देखा जाये इसके लिए प्रतिबंधों को होना (तार्किक होना) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कम ना करके उसे सार्थक एवं अनुकूल बनाता है।
अनुच्छेद 21 – (i) विधि के द्वारा स्थापित प्रक्रिया – उचित, न्यायपूर्णा , ऋजु (तार्किक), (ii) प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षा (जीवन-शारीरिक स्वतंत्रता)।
उत्तर 6 – अनु. 21 जिसमें विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया अर्थात् – प्रक्रियात्मक न्याय का उल्लेख है। लेकिन 1978 के मेनका गांधी बनाम भारत संघवाद में न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणी से इसका क्षेत्र विस्तृत हो गया है और यह माना गया है कि अनु. 21 का संबंध केवल कानून की शब्दावली ना होकर इसमें कानून की आत्मा/भावना भी अन्तर्निहित है और 1980 से अब तक विभिन्न मामलों में अनु. 21 की उदार व्याख्याओं के परिणामस्वरूप इसमें अनेक अधिकार शामिल हो गये हैं यथा, गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार, त्वरित सुनवाई का अधिकार, स्वस्थ पर्यावरणण का अधिकार, चिकित्सीय सहायता का अधिकार, महिला उत्पीड़न की रोकथाम का अधिकार एवं सूचना का अधिकार इत्यादि के कारण यह कहा जा सकता है कि अनु. 21 ने मानवाधिकारों के क्षेत्र को विस्तृत स्वरूप प्रदान किया है।
उत्तर 7 – मूल अधिकारों का संरक्षा, स्वयं में मूल अधिकार है, स्पष्ट करें।
अनु. 32 मौलिक अधिकारों के संरक्षा की दिशा में एक महत्वर्पूण प्रावधान है जो सर्वोच्च न्यायालय को संरक्षा का दायित्व सौंपता है जिसे न्यायालय 5 प्रकार की रिटों के माध्यम से संपादित करता है –
1.बंदी प्रत्यक्षीकरण – भ्ंइमंने ब्वतचने नाम की यह रिट व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा का महत्वर्पूण उपाय है क्योंकि इसके माध्यम से निजी एवं सार्वजनिक दोनों ही अधिकारियों के विरूद्ध रिट जारी की जा सकती है। यदि ऐसा प्रतीत होता है कि किसी व्यक्ति को अवैध रूप से हिरासत में या नजरबन्द कर रखा हो।
2.परमादेश – इसके माध्यम से किसी सार्वजनिक अधिकारी को अपने लोक कर्तव्य सम्पन्न करने का आदेश दिया जाता है क्योंकि कर्तव्यों के उल्लंघन से दूसरे के अधिकारों को क्षति पहुँचती है।
3.प्रतिषेध – इसके अंतर्गत उच्चतम न्यायालय नीचे के न्यायालयों को आदेश देता है कि किसी मामले में की जा रही न्यायिक कार्यवाही को इस आधार पर रोक दिया जाये कि मामला न्यायिक अतिक्रमा का प्रतीत होता है।
4.उत्प्रेषा – किसी मामले में नीचे के न्यायालय द्वारा र्निणय हो जाने के पश्चात् कार्यवाही को संबंधित दस्तावेज शीर्ष अदालत अपने पास मंगवाती है यदि मामला ऐसा है जिसमें नीचे के न्यायालय को र्निणय सुनाने का अधिकार नहीं था।
5.अधिकार पृच्छा – इस रिट के माध्यम से किसी सरकारी पद पर व्यक्ति विशेष के दावे की वैधता को जाँचा जाता है। यदि उस पर व्यक्ति का दावा/अधिकार अनुचित है तो उसे कार्य करने से रोक दिया जाएगा जब तक कि मामले का स्पष्टीकरण ना किया जाये।
उत्तर 8 – राज्य नीति के निदेशक तत्व सामाजिक न्याय एवं सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना के माध्यम से उन आदर्शों की घोषणा करते हैं जिन्हें शासन एवं प्रशासन में स्थान देकर विभिन्न नीतियों एवं योजनाओं के द्वारा लोककल्यााकारी राज्य का आदर्श प्राप्त किया जा सकता है।
ये नीति निदेशक तत्व समाज के प्रत्येक तत्व विशेष रूप से वंचित, पिछड़े, महिला, वृद्ध, निशक्तजन के कल्याा को महत्वर्पूण स्थान देते हुए विभिन्न सामाजिक सुरक्षा के कार्यक्रमों यथा – पेंशन योजना एवं बीमा सुविधाएँ जैसे प्रावधान किये गए हैं।
रोजगार, जिसे लोक कल्याण हेतु आवश्यक तत्व माना जाता है, उसे मनरेगा जेसे कार्यक्रमों और न्यूनतम मजदूरी की विभिन्न घोषणाओं में महत्व प्राप्त हुआ है साथ ही महिलाओं के सम्मान एवं गरिमा की रक्षा जो किसी भी लोकतांत्रिक – कल्याणकारी राज्य की आवश्यकता पहचान है उसे विभिन्न कानूनी उपायों से संरक्षित किया गया है – 1997 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा विशाखा बनाम राजस्थान वाद तथा 2013 में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध एवं प्रतितोष) लोक कल्याणकारी राज्य का भारतीय संदर्भ किशोर आयु के बच्चों को भी अधिनियम महत्वर्पूण स्थान देता है और इसे किशोर न्याय अधिनियम में भी महत्वर्पूण स्थान दिया गया है।
इन तत्वों के अंतर्गत स्वस्थ समाज के निर्माण हेतु मादक द्रव्यों के दुरुपयोग को रोकने और भारत की ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था का सुदृढ़ीकरण करने हेतु कृषि व पशुपालन को भी शामिल किया गया है जिसे ध्यान में रखते हुए भारत के विभिन्न प्रकार के अनुसंधान कार्यक्रम – हरित क्रांति व 1990 के दशक से प्रारम्भ किये गए आर्थिक सुधारों में भी इन्हें महत्वर्पूण स्थान दिया गया है।
इस प्रकार राज्य नीति के निदेशक तत्व उन लक्ष्यों की पूर्ति का सशक्त माध्यम है जिन्हें ध्यान रखते हुए ग्रेनविल ऑस्टिन ने भारतीय संविधान को ‘‘सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन लाने वाले विस्तृत घोषणा पत्र‘‘ का नाम दिया है।
उत्तर – संसद एवं न्यायपालिका का संघर्ष मौलिक अधिकार बनाम नीति निर्देशक तत्वों की व्याख्या से संबंधित है जिसमें मौलिक अधिकारों की प्रकृति व्यक्तिगत एवं नीति निदेशक तत्वों की सामूहिक है एवं
मौलिक अधिकार का संरक्षा न्यायपालिका द्वारा जबकि राज्यनीति के निदेशक तत्व सरकारों हेतु मार्गदर्शन सिद्धांतों का कार्य करते हैं।
1951 में प्रथम संविधान संशोधन (1951) में चंपाकम दोइराजन वाद के प्रभाव को समाप्त करने का प्रयास किया गया और इसमें संसद ने तर्क दिया कि अनु. 46 में समाज के दुर्बल वर्गों की रक्षा के लिये अनु. 15 मौलिक अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है। इसी क्रम में महत्वर्पूण विवाद सम्पत्ति के मौलिक अधिकार पर हुआ, जहाँ 1951 के शंकरी प्रसाद वाद, 1954 बेला बनर्जी वाद व 1964 के सज्जन सिंह वाद में न्यायालय ने यह तर्क दिया कि सम्पत्ति का अधिग्रहणण करते समय पर्याप्त मुआवजा प्रदान किया जाये, यद्यपि संसद ने प्रथम संशोधन से अनु. 31(A) व 31(B) का समावेश करके यह निर्धारित किया
कि नीति निदेशक तत्वों को प्रभावी करने के लिये व सम्पदा का अधिग्रहणण करने हेतु राज्य कानून बना
सकता है एवं 9वीं अनुसूची में इन क़ानूनों को शामिल करने से न्यायालय इनकी समीक्षा नहीं कर सकेगा। 1967 में गोलकनाथ वाद में न्यायपालिका ने संसद की संशोधन करने की शक्ति को अवैध घोषित
कर दिया और सम्पत्ति के अधिकार सहित सभी मूल अधिकारों को संरक्षित कर दिया। लेकिन 1971 में
संसद ने 24वें व 25वें संशोधन से महत्वर्पूण परिवर्तन किये जिसमें अनु. 31(C) जोड़ा गया और घोषित किया गया कि नीति निदेशक तत्वों को प्रभावी करने हेतु अनु. 14, 19 व 31 में संशोधन किया जा सकता है। साथ ही ‘क्षतिपूर्ति‘ की जगह ‘रकम‘ शब्द रख दिया गया जिस पर विचार करना न्यायालय के क्षेत्र से बाहर कर दिया गया।
1973 के केशवानन्द भारती वाद में न्यायालय ने संसद की संशोधन शक्ति को स्वीकार कर लिया लेकिन संविधान के आधार भूत ढाँचे का सिद्धांत/विचार दिया, जिसमें संशोधन नहीं किया जा सकेगा। 42वें संशोधन 1976 से न्यायिक पुनरावलोकन का क्षेत्र समाप्त कर दिया गया और 1978 में 44वें संशोधन से सम्पत्ति का अधिकार मौलिक अधिकारों की सूची से बाहर कर दिया गया।
1980 में मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ वाद में न्यायालय ने कहा कि मौलिक अधिकार व नीति निदेशक तत्वों का संतुलन शासन हेतु आवश्यक है तथा जब अनु. 39(b) व (c) को लागू करना हो तो मौलिक अधिकार संशोधित किये जा सकते हैं अन्यथा मौलिक अधिकार प्रधान बने रहेंगे।
इस प्रकार स्पष्ट है कि संसद व न्यायपालिका का ये टकराव जिसका आधार संविधान के भागों की व्याख्या से संबंधित है उसमें संतुलन बनाये रखने की आवश्यकता है।
प्रश्न:- राज्य नीति के निदेशक तत्व वाद योग्य ना होते हुए भी शासन के संचालन में सक्रिय प्रभाव/ बाध्यकारी प्र्रभाव उत्पन्न करते है, उदाहरणण सहित इस कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर.- भारत जैसे लोकतांत्रिक राज्य में नागरिकों की सुरक्षा और उनका बहुमुखी विकास मुख्य कार्य माने जाते है। परंतु सुरक्षा को विकास पर प्राथमिकता के कारण सविधान में नीति निदेशाक तत्वों को बाध्यता से मुक्त रखा गया परंतु विकास के छः दशकों मे इन तत्वों ने निरंतर नवीन आयाम और प्रभाव प्राप्त किये है जिससे इनका पालन करवाना शासन एवं प्रशासन पर बाध्यकारिता उत्पन्न करता है। जिसका मूल इन तत्वों के विस्तृत विवेचन से स्पष्ट होता है। नीति निदेशक तत्व समाजवादी समाज की स्थापना को प्रारंभिक लक्ष्य के रूप में स्वीकार करते है और विगत छः दशकों में विविध न्यायिक र्निणयों और संविधान संशोधनों ने निदेशक तत्वों के समाजवादी दर्शन को अनूठा प्रभाव प्रदान किया है।
इन तत्वों में सामाजिक दृष्टिकोण से पिछड़े और वंचित वर्गो के बहुमुखी कल्याण को ध्यान में रखा गया है जिसका सीधा सरोकार गरीबी, अशिक्षा, बेकारी, निशःशक्ता जैसी दशाओं से और प्रशासन की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं
द्वारा इन वर्गो को केन्द्र बिंदु बनाना इस बात का सूचक है कि नैतिक मानवता रखने वाले नीति निदेशक तत्व यदि प्रशासन में स्थान प्राप्त न करे तो कल्याणकारी राज्य का स्वप्न अधूरा रह जायेगा। इतना ही नही न्यायिक सक्रियता के विकास ने शासन को इन कल्याणकारी उपायों के क्रियान्वन के लिए समय सीमा में बांध दिया है।
ये तत्व व्यक्ति के जीवन और स्वास्थ्य से सरोकार रखने वाले विषयों को स्थान देकर राज्य की व्यापारिक आर्थिक नीतियों का मार्गदर्शन करते है।
ये तत्व राज्य की कानूनी संरचना में भी मूलभूत परिवर्तन का पक्ष लेते है और शासन के विभिन्न अंगों में सक्रियता के विचार का समावेश करते है, इन तत्वों के होने मात्र से प्रशासन को इस बात का ध्यान रखना होता है कि वे जनता के प्रति संवेदनशील दायित्वों से युक्त है और जब से नागरिक समाज जैसे विषयों का प्रभाव बढ़ा है तब से इन तत्वों के कारण सामूहिक चर्चा परिचर्चा को बढ़ावा मिला है। जिससे इन तत्वों को व्यापक अर्थ और संदर्भ प्राप्त हुआ है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ये तत्व सवैंधानिक प्रावधानों में भले गैर वाद योग्य हो परन्तु उनका नैतिक मानवतावादी लक्ष्यों इतना व्यापक है कि जैसा संविधान निर्माण सभा कहा गया था कि ‘‘ जनता के मतो पर चुनी गई सरकार इन तत्वों के अवहेलना का साहस नही कर पायेगी यह सार्थक और प्रासंगिक साबित हुआ।
प्रश्न:- भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के अन्तर्गत संसदीय सर्वोच्चता एवंम् न्यायिक सर्वोच्चता के मध्य समन्वय का प्रयास किया गया है। यद्यपि विरोध अधिक देखा गया है। विभिन्न वादो एवं संशोधनों के संदर्भ में कथन का परीक्षण कीजिए?
उत्तर.- संविधान की सर्वोच्चता:- संविधान के अन्तर्गत विभिन्न प्रावधानों के माध्यम से सामान्य जन, शासन तथा प्रशासन के विभिन्न अंगो के शक्तियों , दायित्वों एवं कार्यो का पूर्ा एवं अन्तिम रूप से उल्लेख संविधान ही सर्वोच्चता है।
न्यायिक सर्वोच्चता :- संविधान की प्रकृति कानूनी होने के कारण इसकी व्याख्या करने की न्यायिक शक्ति न्यायिक सर्वोच्चता कहलाती है।
संसदीय सर्वोच्चता :- सर्वोच्च विधायी संस्था के रूप में संविधान में बदलाव और नये क़ानूनों का सर्जन करने की शक्ति ही संसदीय सर्वोच्चता है।
भारत में यद्यपि संविधान की सर्वोच्चता विद्यमान है परन्तु संविधान की व्याख्या और उसमें बदलाव लाने के क्रम में विगत दशकों में संसद और न्यायपालिका के आचरण में ऐसी प्रवृतियां विकसित हुई, जिससे शासन के अंगों में से समन्वय के स्थान पर टकराव का वातावरण देखा।
यद्यपि शासन के दोनों अंगों में यह टकराव 1950 के दशक में ही प्रारम्भ हो गया परन्तु 1970 के दशक में इसे प्रमुखता प्राप्त हुई। यह टकराव अनेक मुद्दों पर देखा गया लेकिन मूल प्रश्न:- मौलिक अधिकार और राज्य नीति के निदेशक तत्वों में प्राथमिकता किसे दी जाए के संदर्भ में देखा गया।
चम्पाकम दोईराजन 1951 के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने समानता के अधिकार को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया जबकि इसके प्रति उत्तर में संसद ने प्रथम संशोधन से समानता को व्यवहारिक बनाने हेतु कुछ वर्गो के लिए विशेष संरक्षा की व्यवस्था की। यद्यपि यह विवाद उस समय समाप्त हो गया परन्तु इस प्रथम संशोधन ने 9 वीं अनसूची का समावेश करके समाजवाद के नाम पर सम्पत्ति के व्यक्तिगत अधिकार को कम करने का प्रयास किया गया और इसी क्रम में चौथा संशोधन तथा बेला बनर्जी वाद और 7 वां संशोधन तथा सज्जन सिंह वाद देखे गये जिसमें सम्पत्ति का अधिग्रहण और मुआवजे का निर्धारण जैसे विषय ने विवाद उत्पन्न किया।
यह टकराव 1967 गोलखनाथ वाद में अतितीव्र हो गया जब सर्वोच्च न्यायालय ने संसंद की संशोधन करने की शक्ति पर ही प्रश्न:- चिन्ह लगा दिया और मौलिक अधिकारों को संशोधनों से अक्षु य घोषित कर दिया परन्तु 1971 में 24 वें और 25 वें संशोधन में ना केवल संशोधन के अधिकार को पुनः प्राप्त किया बल्कि न्यायालय के क्षेत्राधिकार को अत्यंत सीमित कर दिया।
इसी क्रम में 1973 में केशवानन्द भारतीवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने यद्यपि संसद की संशोधन शक्ति को स्वीकार किया परन्तु आधार भूत ढ़ांचे की संकल्पना देकर संसद की शक्ति पर परोक्ष रूप से नियंत्रण स्थापित किया।
42 वें संविधान संशोधन 1976 से संसद मे संशोधन की असीमित शक्ति प्राप्ति की और न्यायपालिका में हस्तक्षेप को दूर कर दिया तथा 44 वें संविधान संशोधन 1978 से संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया। (अब सम्पत्ति का अधिकार अनुच्छेद 300 ‘क’ के तहत कानूनी अधिकार है)
1980 में एक संतुलनकारी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए न्यायालय ने इस टकराव को शासन की कुशलता में हानिकारक बताया और संतुलन की आवश्यकता दर्शायी परंतु इस के पश्चातवृत्ति दशकों में भी जैसे आरक्षण, भूमि अधिग्रहण, जन प्रतिनिधियों की योग्यता, न्यायाधीशों की नियुक्ति में कॉलेजियम प्रणाली इत्यादि टकराव के बिंदु रहे है।
प्रश्न:- भारतीय संविधान के अंतर्गत दिये गए मौलिक कर्तव्य प्रत्यक्ष रूप से ही नहीं वरन् परोक्ष रूप से भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति का ही विधिक रुपांतरण है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर. भारतीय संविधान वस्तुतः भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के आदर्शों की ही प्रति ध्वनि है जिसका संदर्भ संविधान में अनेक जगहों पर मिलता है और मौलिक कर्तव्यों का विस्तृत विवेचन सभी परंपरागत भारतीय दर्शन को समकालीन आवश्यकताओं के साथ संबंद्ध करने का संवैधानिक उदाहरण है।
भारतीय संविधान के अंतर्गत मौलिक कर्तव्यों में सामसिक संस्कृति का समावेश किया गया है जिसका तात्पर्य है विभिन्न धर्मों, जातियों, विचारों और मूल्यों से सरोकार रखने वाले व्यक्ति एवं व्यक्तियों का समूह पहचान को सुनिश्चित करते हुए एक समग्र विचार का निर्माण किया जायेगा। दूसरे शब्दों में मौलिक कर्तव्य व्यक्ति और समष्टि में कोई विरोध नही बताते है। ‘‘ एक सबके लिए और सब एक के लिए’’ इसका मूल मंत्र है।
मौलिक कर्तव्यों के अंतर्गत नारी सम्मान का समावेश किया गया है और यह धारणा भारत की परंपरागत विशेषता है, क्योंकि ‘ यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवता’ एक आदर्श वाक्य रहा है। भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों में महिला सम्मान का समावेश करके स्त्री की गरिमा को सामाजिक विकास की बुनियादी शर्त घोषित किया गया है। मौलिक कर्तव्यों में मानववाद को ध्यान दिया गया है और यह मानववाद सम्पूर्ा भारतीय दर्शन का केन्द्र बिंदु है क्योंकि व्यक्ति की व्यक्ति के रूप में पहचान भारतीय संस्कृति का तत्व है और आधुनिक काल में मानवाधिकार की सम्पूर्ा भावना इसी चिंतन पर टिकी हुई है।
भारतीय संस्कृति जीव मात्र के प्रति इतनी संवेदनशील है की प्रकृति मे भी जीव को स्वीकारा गया है और इसलिए पर्यावरण का संरक्षा अतीतकालीन भारतीय व्यवस्था में दिखाई देता है। जिसे मौलिक कर्तव्यों में स्थान दिया गया है।
इस प्रकार मौलिक कर्तव्यों के प्रावधान निश्चय ही सैद्धांतिक नही वरन् व्यवहारिक दृष्टिकोण लिए हुए है और इनकी व्यवहारिकता का सूत्र भारतीय दर्शन की नैतिक मान्यताओं में मिलता है जिन्हे कर्तव्यों के रूप में विधिवत सहिताबद्ध किया गया है।
न्यायिक पुनरावलोकन
प्रश्न:- न्यायिक पुनरावलोकन को परिभाषित कीजिए।
प्रश्न:- न्यायिक पुनरावलोकन से अग्रिम कदम है न्यायिक सक्रियता, स्पष्ट करें।
प्रश्न:- न्यायिक स्वतंत्रता का संवैधानिक संदर्भ दीजिये।
प्रश्न:- न्यायिक सुधार महत्ती आवश्यकता है, टिप्पणी करें।
उत्तर – संसद के क़ानूनों व सरकार के आदेशों की संवैधानिकता का न्यायिक परीक्षा ही ‘न्यायिक पुनरावलोकन‘ है। न्यायिक पुनरावलोकन शाब्दिक रूप में उपलब्ध नहीं है परन्तु अनु. 13, 32 व 226 में इसे व्यापक संदर्भ प्राप्त है। न्यायिक पुनरावलोकन के कारण ही न्यायपालिका संविधान के व्याख्याकार व उसके अभिरक्षक/ संरक्षक की भूमिका निभाती है अतः न्यायिक पुनरावलोकन को संविधान के आधार भूत ढाँचे का भाग घोषित किया गया है।
उत्तर – न्यायिक सक्रियता : न्यायपालिका के द्वारा अपनी कानूनी औपचारिक भूमिका से आगे बढ़कर न्याय के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु कार्य करना ही न्यायिक सक्रियता है। दूसरे शब्दों में न्यायपालिका जब विधि के द्वारा स्थापित प्रक्रिया व विधि की उचित प्रक्रिया के मध्य का भेद कम/सीमित कर दे तो इसे न्यायिक सक्रियता कहा जाता है।
1980 के दशक तक न्यायपालिका के द्वारा न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकतम उपयोग किया गया जिसके कारण संसद व न्यायपालिका में संघर्ष उत्पन्न हुआ। अतः 1980 में न्यायपालिका ने अपनी स्थिति को स्थायी रूप से सुदृढ़ करने के उद्देश्य से जनहित के मुद्दों को अपनी कार्यसूची का भाग बना लिया और इस प्रकार न्यायिक सक्रियता न्यायिक पुनरावलोकन के अग्र कदम रूप में सिद्ध हुई।
न्यायिक सक्रियता के अंतर्गत न्यायपालिका ने पी.एन. भगवती और वी.आर. कृष्णा अय्यर के नेतृत्व में कानून की नई शैली को अविष्कृत किया व जहाँ न्यायिक पुनरावलोकन का उद्देश्य मात्र शासन को उसकी सीमाओं का ज्ञान कराना था वहीं न्यायिक सक्रियता ने शासन व प्रशासन की उदासीनता को जनहित के विरोध में स्वीकारते हुए सभी प्रकार के विषयों को अपनी कार्य सूची का भाग बना लिया।
इस प्रकार न्यायिक सक्रियता एवं न्यायिक पुनरावलोकन एक दूसरे के विरोधी नहीं है क्योंकि दोनों ही का उद्देश्य संविधान के व्याख्या कार एवं संरक्षक के रूप में न्यायपालिका की भूमिका को बनाए रखना है।
विधि के द्वारा स्थापित प्रक्रिया – कानून में निर्धारित की गई प्रक्रियाओं का अक्षरशः पालन ही विधि के द्वारा स्थापित प्रक्रिया है।
विधि की उचित/सम्यक प्रक्रिया – कानूनी शब्दावली ही नहीं वरन् कानून के पीछे छिपी न्याय की भावना को ध्यान रखना ही विधि की उचित/सम्यक प्रक्रिया है।
जनहित याचिका (PIL) – व्यापक जनहित से जुड़े मुद्दों को न्यायालयों को औपचारिक कानूनी प्रक्रिया का पालन किये बिना प्रस्तुत करना ही जनहित याचिका है।
उत्तर – न्यायिक स्वतंत्रता बनाये रखने के उपाय:
- न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका हस्तक्षेप से मुक्ति,
- न्यायाधीशों का नियत/निश्चित कार्यकाल,
- पदावधि से हटाने की जटिल प्रक्रिया,
- पर्याप्त वेतन, भत्ते और सुविधाऐं,
- सेवा शर्तों में अलाभकारी परिवर्तनों का निषेध,
- विधायिकाओं में न्यायाधीशों के आचरण पर चर्चा का निषेध,
- न्यायालय को अवमानना के विरूद्ध दंड देने की शक्ति (न्यायिक स्वतंत्रता संविधान के आधार भूत ढाँचे का भाग है)
कॉलेजियम प्रणाली: न्यायिक नियुक्तियाँ (सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय) भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श पर आधारित।
अथवा
न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायिक परामर्श द्वारा किये जाने की पद्धति ही कॉलेजियम है (थ्री जजेज केस का संदर्भ) NJAC/राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग – 99वें संविधान संशोधन द्वारा विकसित जिसमें न्यायिक नियुक्तियाँ
न्यायाधीशों एवं सरकार के सम्मिलित प्रयासों का परिणाम परन्तु अवैध घोषित (SC द्वारा)।
कॉलेजियम – 1982 से 1998 तक ‘थ्री जजेस केसेज‘ के माध्यम से विकसित हुई प्रणाली जिसमें सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय भारत का मुख्य न्यायाधीश अपने वरिष्ठम सहयोगियों से परामर्श लेगा जिस पर राष्ट्रपति अनुमति देंगे।
न्यायपालिका को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखने हेतु यह पद्धति विकसित की गई है जो वर्तमान में भी जारी है।
(कॉलेजियम – 50 शब्द)
थ्री जजेस केसेज – कॉलेजियम का परामर्श राष्ट्रपति पर बाध्यकारी है या नहीं इसका निर्धारण करने वाला र्निणय ही ‘थ्री जजेस केसेस‘ कहा जाता है।
NJAC – न्यायाधीशों की नियुक्ति में कॉलेजियम की प्रणाली को समाप्त करने के उद्देश्य से 99वें संशोधन द्वारा प्रस्तुत। इसमें (NJAC में) मुख्य न्यायाधीश (SC), दो वरिष्ठतम न्यायाधीश, केन्द्रीय विधि मंत्री एवं दो प्रसिद्धि प्राप्त कानूनी क्षेत्र के जानकार जिनका मनोनयन एक समिति के द्वारा किया जाना निर्धारित हुआ था परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने NJAC को न्यायिक स्वतंत्रता का अतिक्रमा बताते हुए अवैध घोषित कर दिया।
कॉलेजियम के पक्ष में तर्क:
- कॉलेजियम कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं है वरन् डेढ़ दशक लम्बे न्यायिक विमर्श का परिणाम है।
- न्याय कार्य चूंकि एक तकनीकी कार्य है जिसमें अनुभव एवं विशेषज्ञता की आवश्यकता है व इसे न्यायिक वातावरण में ही सीखा जा सकता है। अतः ऐसे उपयुक्त व्यक्तियों का चयन सिर्फ न्यायपालिका ही कर सकती है।
- कॉलेजियम के कारण न्यायपालिका की स्वतंत्रता राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त रहती है।
- अधिकांश विवादों में सरकार एक पक्ष होती है अतः सरकारी प्रतिनिधियों द्वारा न्यायधीशों की नियुक्ति ना होने से न्यायपालिका अधिक निष्पक्षता से कार्य कर पाती है।
NJAC के पक्ष में तर्कः
-
- NJAC का प्रावधान संवैधानिक रूप से किया गया जबकि कॉलेजियम गैर-संवैधानिक व्यवस्था है।
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- न्यायिक नियुक्तियाँ न्यायाधीश द्वारा ही किये जाने पर शक्ति संतुलन जो संसदीय शासन की व्यवस्था है वह नष्ट हो जाती है।
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- NJAC की व्यवस्था संविधान निर्माताओं की उस भावना का सूचक है जिसे उन्होंने संविधान में पहले ही स्थान दे दिया था जिसके अंतर्गत न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा किया जाना निश्चित हुआ था।
- NJAC का संशोधन संसद के 2/3 बहुमत व 20 राज्यों की विधान सभाओं द्वारा पारित किया जाना इस बात का सूचक है कि देश की जनता भी न्यायिक नियुक्तियों में सुधार की पक्षधर है।
प्रश्न:- न्यायिक सक्रियता से क्या आशय है, भारत में न्यायिक सक्रियता के कारण जहां एक ओर संवेदनशील मुद्दों का निपटारा हुआ है, वहीं न्यायिक सक्रियता न्यायिक अतिक्रमा के रूप में विकसित हुई है। टिप्पणी लिखिए-
उत्तर. भारतीय संविधान शासन के विभिन्न अंगों के मध्य संतुलन और सामन्जस्य की व्यवस्था को स्वीकारता है और न्यायापालिका की प्रकृति तकनीकी होने के कारण इसे अधिक निश्चितता दी जाती है परंतु 1980 के दशक से न्यायिक सक्रियता के विचार ने इस धारणा में बदलाव किया और अब न्यायपालिका विशिष्ट भूमिका के साथ-साथ व्यापक भूमिका भी निभाती नजर आती है।
न्यायालय के द्वारा अपनी कानूनी औपचारिक भूमिका से आगे बढ़कर अनौपचारिक भूमिका को ग्रहण करना, जिससे संर्वहित की सिद्धि हो सके, वह न्यायिक सक्रियता है। दूसरे शब्दों में न्याय करते समय इसके केवल कानूनी पहलुओं तक ही सीमित ना रहना बल्कि समाजोपयोगी दशाओं को सुरक्षित और सुनिश्चित करने का प्रयास करना न्यायिक सक्रियता है।
अर्थात न्याय वह है जो ना केवल किया जाए बल्कि होता हुआ दिखाई दे।
न्यायिक सक्रियता के विकास में पी.एन. भगवती और वी. आर. कृष्णा अय्यर का मुख्य स्थान रहा और न्यायिक सक्रियता का प्रारंभिक रूप मानवाधिकारों की रक्षा के लिए विकसित हुआ। सुनील बत्रा बनाम् दिल्ली प्रशासन, मेनका गांधी वाद और हुशन आरा खातुन वाद में यह सुनिश्चित किया कि न्याय की प्रक्रिया का उचित एवं न्याय पूर्ण होना चाहिए।
1980 के दशक में जहां न्यायिक सक्रियता का सरोकार कानूनी न्याय से था, वहीं 1990 के दशक में वैश्वीकरण के प्रारम्भ से हुई नवीन समस्याएं – जैसे मानवाधिकारो का हनन, महिला उत्पीड़न में वृद्धि, वैश्विक आतंकवाद, पारिस्थितिक असंतुलन आदि से भी हो गया। इसलिए न्यायिक सक्रियता के क्षेत्र में कुछ नवीन आयाम जुड़ गए और इसी कारण समाज का हर वर्ग, हर क्षेत्र और हर प्रकृति पर इसका ध्यान आकर्षित हुआ।
जनहित याचिकाओं के विकास के कारण न्यायिक सक्रियता में लोकहितवाद की संकल्पना को महता प्राप्त हुई और न्यायपालिका उन विशाल संख्या के जनमानस के लिए आशा की किरण बनी जो प्रशासनिक उदासीनता और लापरवाही से पीड़ित थे। न्यायिक सक्रियता के परिणामस्वरूप ही विविध क्षेत्रों में जनअसंतोष के संवेदनशील तरीके जाने और समझे गये तथा सामाजिक न्याय के विशुद्ध विचार को उर्वर दृष्टि प्राप्त हुई।
भले ही न्यायिक सक्रियता न्यायिक दृष्टिकोण में उदारता और संवेदनशीलता की सूचक रही हो परंतु जैसा की ‘लार्ड एक्टन’ ने कहा कि ‘‘शक्ति भ्रष्ट करती है और निरंकुश शक्ति पूर्णतया भ्रष्ट कर देती है।’’ अतः न्यायपालिका ने भी न्यायिक सक्रियता के बलबूते अपनी शक्तियों में असीमित वृद्धि कर ली। जनहित याचिकाओं की प्रकृति इतनी सरल हो गई है कि न्यायपालिका के द्वारा सरकार के क़ानूनों और उसके कार्यो की व्याख्या करने के क्रम में रूढ़िवादिता या परिवर्तन विरोध को जन्म दिया इसके परिणाम स्वरूप न्यायिक सक्रियता, न्यायिक हस्तक्षेप और न्यायिक अतिक्रमा में रूपान्तरित हो गया जिसे लोकतंत्र के कुशल संचालन की एक बाधा माना जा सकता है।
निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि लोकतंत्र में नवाचारों का सदैव स्वागत होता है। और न्यायिक सक्रियता ऐसा ही एक नवाचार है परंतु इसके साथ मौलिक प्रवर्त्तियों का विध्वंस स्वीकार्य नहीं हो सकता है अतः न्यायिक सक्रियता का विकास लोकतांत्रिक परिपक्वता के दृष्टिकोण से किया जाना चाहिए ताकि शासन के अंगों में संतुलन और अन्तः क्रिया तथा संवाद बने रह सके।
प्रश्न:- भारत का संविधान संघ है परन्तु इसकी प्रकृति संघीय है कथन को स्पष्ट करें?
अथवा
भारत में जिस प्रकार का संघवाद अपेक्षित था और जिस प्रकार संघवाद विकसित हुआ उसने भारतीय राज व्यवस्था में नूतन प्रवृतियों को जन्म दिया है उदाहरण देकर कथन की पुष्टि कीजिए।
उत्तर. भारतीय संविधान राज्यों के संघ के रूप में संघ में आत्मनिर्भरता की स्थापना करता है लेकिन भारत एक विविध सांस्कृतिक विशेषताओं से युक्त राष्ट्र है, इसीलिए भारत में संघ को शिथिल बनाते हुए संघ राज्य सम्बन्धों के माध्यम से प्रांतों को भी मज़बूती दी गई है और इसीलिए भारत में संघीय गतिशीलता विगत छः दशकों से नये स्वरूप व नई प्रवृत्तियां प्राप्त करती गई है।
1950 के दशक में राष्ट्रीय नेतृत्व, राष्ट्रीय मुद्दों की विद्यमानता, तथा एकदल प्रभुत्व का था और इसके कारण तत्कालीन विभाजनकारी परिदृश्य के बावजूद जिसमें धर्म तथा भाषा मुख्य उभार ले रहे थे तो भी सारे प्रयास संघ की मज़बूती के लिए हुए। इस दौर में संघ तथा राज्यों के मध्य एक सामूहित आत्मनिर्भरता का विकास हुआ जिसमें राज्य निर्माण और राष्ट्र निर्माण के कारण ग्रेनविल ऑस्टिन जैसे विचारकों ने भारतीय संघ को सहकारी संघवाद का नाम दिया।
1970 के दशक से भारतीय राज व्यवस्था में कुछ नवीन प्रवृत्तियाँ उभरी जैसे सर्वमान्य नेतृत्व का अभाव, चरमपंथी ताकतों का उदय, सरकार एवं न्यायपालिका का टकराव इत्यादि कारणों से सौदेबाजी का संघ की प्रवृत्ति दिखाई देने लगी। ओर आपातकालीन परिदृश्य के बाद तो क्षेत्रीय दलों का प्रभाव बढ़ने से इन प्रवृत्तियों में तेजी आई।
1990 के दशक से भारतीय राजनीति में गठबंधन की शुरूआत और धर्म, जाति, वर्ग जैसे मुद्दों का हावी होना तथा वैश्वीकरण के प्रारम्भ से आर्थिक मोर्चे पर मिलने वाली चुनौतियों में राज्यों के महत्व को नकारा जाना संघ के लिए न तो संभव था और ना ही व्यावहारिक। इसलिए राज्यों ने अपने महत्व को रेखांकित करते हुए संघ के साथ सौदेबाजी का व्यवहार अपनाया और संघीय गतिशीलता सौदेबाजी के संघ में परिवर्तित हो गई।
परन्तु 16 वीं लोकसभा के चुनावों ने जिस प्रकार मतदान व्यवहार को प्रभावित किया और परंपरागत राजनीति की कमियों को दूर किया तथा विकास, अर्थव्यवस्था और सशक्त विदेश नीति जैसे विषय प्रभावी माने गए परन्तु साथ ही राज्यों के महत्व को नये सिरे से परिभाषित करने पर जोर दिया गया। इस प्रकार जहां एक ओर प्रधानमंत्री के सशक्त नेतृत्व में गृह एवं विदेश दोनो मामलों में केन्द्रीकरण को प्रस्तुत किया है वही सबका साथ सबका विकास जैसे कदमों से राज्यों को भी साथ लिए जाने का समर्थन किया है। इसके अंतर्गत योजना आयोग की जगह नीति आयोग की संरचना की गई है। जिसमें नीतियों का निर्माण आधार से शीर्ष की बात शामिल है।
सार रूप में कहा जा सकता है कि भारत में संघ तथा संघवाद के मध्य कोई अंतर्विरोध नहीं है और समयानुकुल तथा अवसरानुकुल संघवाद की प्रवृत्तियों में रूपान्तरण देखने को मिला है और जैसा कि 1994 में एस.आर बोम्मई वाद में परिसंघ को संविधान का आधार भूत ढंाचा घोषित किया गया है, इसलिए संघवाद निरंतर गतिमान अवधारणा है और इसमें आने वाले परिवर्तन इसकी सक्रियता के सूचक है।
प्रश्न:- राज्य क्षमा का प्रयोग करना राष्ट्रपति का विशेषाधिकार है परन्तु दया याचिकाओं पर होने वाला विलम्ब न्याय की भावना के प्रतिकूल है। टिप्पणी कीजिए?
उत्तर. भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में कार्यपालिका प्रमुख को न्यायिक शक्ति दिया जाना सिद्धांत और व्यवहार दोनों ही दृष्टि से विचित्र लग सकता है परन्तु न्याय के नियमों का सार यह है कि न्याय की भावना का पालन किया जाए और न्याय की प्रक्रिया में यदि कोई त्रुटि है तो फिर उस गलती को सुधारने का दायित्व अंतिम रूप से राष्ट्रपति को प्रदान किया जाये।
राष्ट्रपति को अनु. 72 के अंतर्गत जो क्षमादान की शक्तियां प्राप्त है उसमें वह क्षमा, लघु करण, प्रविलम्बन तथा विराम के माध्यम से इनका उपयोग करता है और अपराध की मात्रा और उसकी गुढ़ता (प्रभाव) के आधार पर इनका प्रयोग किया जाता है। राष्ट्रपति की यह शक्ति उसकी विवेकाधीन शक्ति है परन्तु इसका प्रयोग सरकार की सलाह पर किया जाता है।
न्याय कार्य चूंकि तकनीकी विशिष्ट प्रकार का कार्य है इसलिए मेहरंसिंह वाद में सर्वोच्च न्यायलय ने यह र्निणय दिया कि राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति का न्यायिक पुनरावलोकन हो सकता है यदि वह किसी प्रकार के असद्भाव के आधार पर किया जाए, तो न्यायलय इसमें दिशा निर्देश जारी कर सकता है।
राष्ट्रपति के द्वारा क्षमादान की याचिका पर निर्णय में होने वाला विलम्ब न्यायपालिका के द्वारा, न्यायिक भावना के प्रतिकूल बताया गया है और इसलिए दया याचिकाओं के जल्दी निपटारे का समर्थन किया है।
वस्तुतः यह विषय व्यक्ति के हितों एवं अधिकारों से प्रत्यक्षतः जुड़ा हुआ है इसलिए इसमें किसी के भी दृष्टिकोण को तार्किक रूप से गलत नही ठहराया जा सकता है बल्कि न्यायपालिका और राष्ट्रपति दोनो ही किसी मामले के गुणों एवं दोषों के आधार पर ही इसे समझाने का प्रयत्न करते है।
भारत जैसे देश में जहां एक मामले में न्याय की औसत आयु 15 वर्ष है वहां राष्ट्रपति से त्वरित न्याय की उम्मीद की जा सकती है परन्तु सभी मामले राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति के भीतर लाए जायेगें तो न्याय की संस्थात्मक धारणा की ध्वस्त हो जायेगी।
अतः आवश्यकता इस बात की है कि न्यायिक व्यवस्था में सुधारात्मक परिवर्तन हो जिससे हजारो लाखों व्यक्तियों को न्याय वास्तव में उपलब्ध हो सके, साथ ही राष्ट्रपति राष्ट्र के अभिभावक के रूप में क्षमादान की शक्ति के माध्यम से न्याय की प्रक्रियागत तकनीकी खामी को दूर करते हुए न्याय की भावना को सुरक्षित रख सके।
प्रश्न:- संविधान होने के बावजूद संवैधानिक निरक्षरता विद्यमान है। विवेचना कीजिए ?
उत्तर. भारतीय राज व्यवस्था के अंतर्गत एक विस्तारित प्रकार का संविधान होने के बावजूद संवैधानिक निरक्षरता की विद्यमानिता गंभीर किस्म का विरोधाभाष है भारतीय संविधान जनसामान्य के प्रत्येक वर्ग और समुह तक अपनी पहुंच रखता है। इसलिए यह सर्वसमावेशी संविधान है, परन्तु संविधान के लागू होने से आज तक संविधान की व्याख्या और संविधान की समझ विकसित करना एक चुनौती बना हुआ है, इसे ही संवैधानिक निरक्षरता माना जाता है।
संविधान केवल विषय के रूप में कुछ पाठ्य पुस्तकों तक सिमट कर रह गया है और संवैधानिक मूल्य, मान्यताएं, आदर्श एवं परम्पराएं अभी भी लोगो को ज्ञात नहीं है। इसमें निःसंदेह देश के बुद्धिजीवी, जन प्रतिनिधि एवं नागरिक समाज के सदस्यों का यह दायित्व है कि वे संवैधानिक ज्ञान को सीखे, आत्मसात करे और इसका व्यापक प्रचार प्रसार करें। जिससे संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन और जानकारी का अभाव जैसी शिकायतें कम से कम हो सकें। अतः संवैधानिक निरक्षरता निश्चित ही संवैधानिक व्यापकता का हनन है। जिसे दूर किया जाना चाहिए।
प्रश्न:- भारत में हाल की घटनाओं ने धार्मिक असहिष्ाुता के प्रश्न:- पर एक गम्भीर किस्म के विवाद को जन्म दिया है। विवाद के संदर्भ में इस प्रश्न:- को बताते हुए उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए?
उत्तर. धार्मिक असहिष्णुता का अभिप्राय दूसरे के मत को न केवल अस्वीकार करना बल्कि उसका प्रतिरोध करना भी है। भारत जबकि पंथनिरपेक्ष राष्ट्र है और सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत की पालना करता है ऐसे में धार्मिक असहिष्णुता का होना निःसंदेह पंथनिरपेक्ष छवि को आघात है।
भारत में पिछले कुछ समय से धर्म विशेष से जुड़ी कुछ मान्यताओं और संस्कारो को लेकर एक विशेष माहौल देखा गया जिसमें पहनावें, खान-पान, धार्मिक क्रियाओं को सम्पन्न करने का ढंग और पाठ्यपुस्तकों में कुछ विशेष
ऐतिहासिक व्यक्तियों का पढ़ाया जाना तथा संप्रदाय विशेष के लोगो पर हो रहे हमले निश्चय की धार्मिक असहिष्णुता के भाव का समर्थन करते है। अतः आवश्यकता इस बात कि है कि धार्मिक असहिष्णुता को मात्र अखबारों की सुर्खियों का विषय न बनाकर इस पर समवाद को बढ़ावा दिया जाये। जिसमें धर्मों के प्रतिनिधियों और समाज पर व्यापक प्रभाव डालने वाले वर्गो को शामिल किया जाये।
अतः आवश्यकता इस बात की है कि विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, मतों, पंथो एवं दृष्टिकोाों के लोगों में साम्प्रदायिक सद्भावना को बढ़ाने का प्रयास किया जाये। उदारणार्थ :- स्थानीय मेलों का आयोजन, सार्वजनिक स्थलों का विकास, पर्यटन को बढ़ावा, शैक्षणिक संस्थाओं में सहिष्णु व्यवहार एवं निरपेक्ष शिक्षा, लॉफ्टर फ़ेस्टिवल, कलात्मक प्रदर्शनियों का आयोजन इत्यादि।
प्रश्न:– पंथनिरपेक्षता किसे कहते है? क्या भारतीय संदर्भ में पंथनिरपेक्षता कोई विशेष पक्ष प्रस्तुत करती है।
उत्तर. पंथनिरपेक्षता का आशय है कि राज्य धर्म और धार्मिक मामलों में अपने कार्यो तथा गतिविधियों को अलग रखेगा, क्योंकि धर्म व्यक्ति के निजी विश्वास का विषय है। इसी को आधार मानकर भारतीय संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्षता का समावेश किया गया है (42 वां संविधान संशोधन विधेयक 1976)। और अनुच्छेद 25 से 28 तक में
धार्मिक स्वतंत्रता के अंतर्गत इसको व्यवाहारिक रूप देने की कोशिश की गई। (अनुच्छेद 25 अन्तःकरण ण की स्वतंत्रता) ।
परंतु भारतीय दृष्टिकोण धर्म को नैतिक मूल्यों से जोड़ने के कारण पंथनिरपेक्षता को धर्म का निषेध नही मानता वरन्
धर्म के विषय सभी धर्मों को संरक्षा और धार्मिक विषयों में समन्वय का प्रतिपादन करता है । इससे भारत में पंथनिरपेक्षता का विचार सकारात्मक भाव प्राप्त कर लेता है। यही भारतीय पंथ निरपेक्षता की बुनियादी पहचान है।
प्रश्न:- अध्यादेश का संवैधानिक संदर्भ बताते हुए, इसके औचित्य का परीक्षण कीजिए। हाल के समय में अध्यादेश शक्ति का दुरुपयोग और बचाव के उपाय प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर. संविधान निर्माण के समय परिस्थिति विशेष में कानून के अभाव जैसी समस्या का समाधान करने के लिए अध्यादेश का विचार प्रस्तुत किया गया था । संविधान के अनुच्छेद 123 में इसे राष्ट्रपति की विधायी शक्ति का भाग बनाया गया।
राष्ट्रपति को यह आभास होने पर की संसद के सत्र में न होने के कारण विधिक निर्माण की प्रक्रिया संभव नहीं है और तुरंत कानून बनाना आवश्यक है तो राष्ट्रपति उन सभी विषयों पर अध्यादेश जारी कर सकता है जिन पर संसद कानून निर्माण कर सकती है यह संसद की कानून बनाने की शक्ति का निषेध और उसका विकल्प नही हो सकता । अध्यादेश लाने का औचित्य केवल प्रक्रियागत कमियों का निपटारा करना है और 1970 के बाद में न्यायलय ने अध्यादेश जारी करने की शक्ति पर असद्भाव और तर्क विहिनता का प्रतिबंध लगाया है दूसरे शब्दों में अध्यादेश राष्ट्रपति के माध्यम से शासन की निरकुंश शक्ति का सूचक नहीं होना चाहिए।
पिछले कुछ समय में कुछ महत्वर्पूण विषय जैसे कि भूमि का अधिग्रहण इत्यादि पर संसद के भीतर और बाहर विरोध की आशंका के कारण भूमि अधिग्रहण पर दोहरान देखा जा रहा है।
यह दोहराव इतना अधिक था कि राष्ट्रपति को स्वयं अध्यादेश बार-बार लाए जाने की सरकार की योजना पर संदेह व्यक्त करना पड़ा। वस्तुतः अध्यादेश की प्रकृति ऐसी है कि इसके माध्यम से सरकार महत्वर्पूण संवेदनशील विषयों पर संसद में होने वाली चर्चा से बचने का प्रयास करती है, क्योंकि अध्यादेश के माध्यम से कानून का प्रकाशन एवं प्रदर्शन पहले ही हो जाता है और एक निश्चित अवधि के लिए सरकार को किसी विषय विशेष पर देश का रूझान पता चल पाता है।
परन्तु अध्यादेश के कारण संसदीय लोकतंत्र की मूल भावना में कमी देखी जा रही है। क्योंकि लोकतंत्र वाद-विवाद के माध्यम से ओर परिपक्व होता है जबकि अध्यादेश के कारण वाद-विवाद का यह पक्ष गौण हो जाता है।
अध्यादेश का इस प्रकार का दुरूपयोग निश्चय ही सवैधानिक भावना और सवैंधानिक सीमाओं का अतिक्रमा है, अतः कोशिश यह होनी चाहिए कि अध्यादेश का सवैंधानिक संदर्भ और अध्यादेश की व्यावहार्यता दोनों को ध्यान में रखा जाए तथा अध्यादेश सरकार के द्वारा अपनी सुविधा के दृष्टिकोण से नहीं वरन् जनहित के दृष्टिकोण से लाए जाए और उनकी बारम्बरता में कमी लाई जाए क्योंकि ऐसा होने पर ही अध्यादेश संविधान विरोधी नहीं वरन् संविधान संगत प्रभाव रख सकेंगे।
प्रश्न:- भारतीय राजनीति की प्रवृतियों में पिछले छः दशकों में आयी प्रवृतियों की समीक्षा कीजिये?
उत्तर. भारत की राजनीति का आधार विस्तृत सामाजिक सांस्कृतिक दर्शन है इसलिए भारतीय राजनीति 1950 से लेकर अब तक सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करती हुई प्रतीत होती है। इसलिए भारतीय राजनीति में समय-समय पर आए परिवर्तनों ने राजनीति को रूपान्तरित करने का कार्य किया और इस कार्य को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, विधिक, आधारों ने मज़बूती प्रदान की है।
1950 के दशक में विकसित हुई भारतीय राजनीति का स्वरूप राजनीतिक कम राष्ट्रीय अधिक था क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा, राजनीतिक स्थिरता आर्थिक प्रगति भारतीय राजनीति के प्रधान मुद्दे थे। इसलिए 1970 तक भारतीय राजनीति में एक दलीय प्रभुत्व देखने को मिला।
1970 के दशक में भारतीय राजनीति एक नये युग में प्रवेश कर गई जहां न्यायपालिका से सरकार का टकराव और भारतीय राजनीति में विचारधारा की स्पष्टता दिखने लगी तथा नेतृत्व का संकट एक मुख्य मुद्दा बन गया। इस समय पर 1975 में आपातकाल के माध्यम से भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति दमन और शोषण की प्रतीक बन गई और आगामी राजनीति उसी आधार पर विकसित होने लगी।
1980 के दशक से वैश्वीकरण के प्रभाव से भारतीय राजनीति पर आर्थिक तत्व का प्रभाव बढ़ने लगा और आर्थिक सुधारों के माध्यम से भारतीय राजनीति विश्व की राजनीति का हिस्सा बन गई । 21 वीं सदी का प्रथम दशक भारतीय राजनीति में कई वैश्विक मुद्दों को लेकर आया और मानवाधिकार संरक्षा लैंगिक उत्पीड़न से सुरक्षा, भूमंडलीय उष्णता, WTO में कृषि और मानवाधिकारो को नागरिक समाज के आन्दोलनों की तीव्रता जैसे कारकों से भारतीय राजनीति में मात्रात्मक के साथ-साथ गुणात्मक परिवर्तन भी दिखाई देने लगे।
इस प्रकार पिछले छः दशकों में भारतीय राजनीति अपने बाहरी आवरण के साथ अपने आन्तरिक अवयवों में भी परिवर्तित होती दिखाई दी है और यह परिवर्तन भारतीय राजनीति की गतिशीलता का सूचक है।
प्रश्न:- मतदान व्यवहार पर टिप्पणी कीजिये?
उत्तर. मतदान व्यवहार का अर्थ है, मतदाताओं में राजनीतिक विशेष कर चुनावी विषयों पर अपने मत का प्रदर्शन और इसमें महत्वर्पूण कारकों की भूमिका। भारत में मतदान व्यवहार परंपरागत रूप से धर्म, जाति, वर्ग क्षेत्र जैसे मुद्दों से प्रभावित रहा है। मतदान व्यवहार में कई नई प्रवृत्तियां भी देखी जा रही है। वर्तमान में मतदान व्यवहार विकास के मुद्दों भ्रष्टाचार से मुक्ति, सुशासन, सशक्त विदेश नीति जैसे प्रश्ननो से सरोकार रखने लगा है और मतदान व्यवहार में हुआ यह परिवर्तन भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता की निशानी है।
प्रश्न:- मतदान व्यवहार से क्या आशय है, निर्वाचन के अंतर्गत मतदान व्यवहार को निर्धारित करने वाले कारकों एवं प्रभावों की समीक्षा कीजिए?
अथवा
भारत में मतदान व्यवहार के परिवर्तनों ने लोकतांत्रिक परिपक्वता में महत्वर्पूण योगदान दिया है यद्यपि अनेक बार नकारात्मक तत्व भी दृष्टिगोचर हुए है कथन के संदर्भ में मतदान व्यवहार की प्रवृतियों को इंगित कीजिए-
उत्तर. मतदान व्यवहार का आशय उन प्रवृतियों एवं रूझानों से है जिसके माध्यम से निर्वाचन में मतदाता अपने रूचि और विरोध को अभिव्यक्त करते है लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में निर्वाचन एक महत्वर्पूण मुद्दा है क्योंकि इसी से शासन एवं जनता के मध्य सम्पर्को की स्थापना होती है। इसलिए निर्वाचन का केन्द्रीय तत्व मतदाता का व्यवहार है। जिसके माध्यम से निर्वाचन की दिशा, निर्वाचन के परिणामों एवं शासकीय नीतियों को प्रभावित करने का प्रयास होते है। मतदान व्यवहार को निर्धारित एवं प्रभावित करने में अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन तत्वों का प्रभाव होता है। दीर्घकालीन तत्वों के अंतर्गत सामाजिक स्थिति, जाति, धर्म के परंपरागत मुद्दे, विचार धारा का स्वरूप, आर्थिक विकास पर ध्यान, राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे, राजनीतिक स्थिरता, जनकल्याा इत्यादि को शामिल किया जाता है जबकि अल्पकालीन कारकों के अंतर्गत तात्कालिक मुद्दों का प्रभाव मतदान व्यवहार पर देखा जाता है जैसे किसी आपराधिक घटना का घटित होना, आपदा के समय राहत कार्यो में गड़बड़ी, आवश्यक वस्तुओं के दामों में बढ़ोतरी, मीडिया द्वारा किये जाने वाले स्टिंग ऑपरेशन इत्यादि महत्वर्पूण है।
मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारकों में एक अन्तः क्रिया पायी जाती है और अनेक बार कुछ मुद्दे रूपान्तरित होते है जैसे नेतृत्व एक दीर्घकालीन मुद्दा है परन्तु नेतृत्व में आकस्मात परिर्वतन एक अल्पकालीन मुद्दा है।
भारत की राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत प्रथम आम चुनाव से लेकर 16 वीं लोकसभा चुनाव तक मतदान व्यवहार में यथास्थिति और परिवर्तन दोनों ही दृष्टिगोचर हुए है। प्रारंभिक समय में एक दल की विचारधारा में विश्वास और नेतृत्व की सर्वमान्यता तथा राष्ट्र का विकास ऐसे मुद्दे थे जिनके कारण मतदान व्यवहार ना केवल केंद्रीय राजनीति बल्कि राज्यों की राजनीति में भी प्रभावी रूप से दिखायी दिया। परन्तु 1990 के दशक से मतदान व्यवहार जटिल बन गया जिसमें जातिगत वोट बैंक, धर्मगत तुष्टिकरण, क्षेत्रगत पहचान जैसे विषय इतने प्रभावी हो गए कि मतदान व्यवहार इन्हीं विषयों पर निर्भर हो गया इसलिए भारत की राज व्यवस्थाओं में मतदान व्यवहार चुनावी भ्रष्टाचार के अंतर्गत एक सहायक उपकरण साबित हुआ।
लेकिन 16 वीं लोकसभा चुनाव ने मतदान व्यवहार को नवीन आयाम प्रदान किये। वैश्विक घटनाओं के प्रभाव के कारण भारत की राज व्यवस्था में विकास का मुद्दा सर्वसमावेशी विचार के रूप में अत्यंत महत्वर्पूण मुद्दा बना दिया। जिसके कारण 16 वीं लोकसभा चुनावों में जाति तथा धर्म की परंपरागत जटिलता विकास और सुधार की लचीली व्यवस्था के समकक्ष गौण हो गयी और इसलिए मतदान व्यवहार में युवा वर्ग, नागरिक समाज, प्रबुद्ध मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग ने परंपरागत उदासीनता का त्याग किया और संर्कीण व्यवहारों पर व्यापक राष्ट्र हित को महत्त्व प्रदान किया।
यद्यपि मतदान व्यवहार में बदलाव हुआ परन्तु बदलाव की निरन्तरता मुख्य विषय है क्योंकि भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग सामाजिक आर्थिक परिवेश की कठिनाइयों के कारण तत्कालीन विषयों तथा भावनात्मक नारों को प्राथमिकता प्रदान करता है, इसलिए मतदान व्यवहार का एक निश्चित दिशा में विकास होना अभी भी चुनौतिर्पूण परिदृश्य है।
प्रश्न:- गठबंधन सरकार का क्या आशय है। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में गठबंधन सरकार की आवश्यकता और भूमिका का परीक्षण कीजिए।
अथवा
गठबंधन सरकार भारतीय राज व्यवस्था का अनिवार्य तत्व बनकर उभरी है परन्तु इसके दुष्परिणाम ही अधिक दृष्टिगोचर हुए है। कथन की समीक्षा कीजिए?
उत्तर. गठबंधन सरकार से तात्पर्य दो या अधिक राजनीतिक दलों के आपसी गठबंधन या गठजोड़ से है जिसका उद्देश्य सरकार के बहुमत की सुनिश्चितता और सामूहिकता के भाव को विकसित करना है।
भारत की राजनीतिक व्यवस्था का आधार इसका विस्तृत सामाजिक-सांस्कृतिक दर्शन है, इसलिए भारतीय राजनीति को गतिशील बनाने वाला कोई भी तत्व बहुलवादी होना स्वभाविक है। यहीं कारण है कि भारत में गठबंधन सरकार राज व्यवस्था की एक अनिवार्य विशेषता एवं पहचान के रूप में प्रतिष्ठित हुयी है। गठबंधन सरकार 1990 के दशक से भारत की राजनीति का स्थायी चरित्र बनकर उभरी है और विगत दो दशकों से अधिक समय से भारत की राजनीति पर इसी का प्रभाव है।
गठबंधन सरकार की आवश्यकता कई कारणों से भारत की व्यवस्था में महसूस की जाती है:-
1.भारतीय समाज हितों की विविधता पर आधारित होने के कारण गठबंधन सरकार के लिए स्वाभाविक दशा उत्पन्न करता है। साथ ही गठबंधन सरकार के होने से समाज में बिखरे हुए विभिन्न हितों को सत्ता के केन्द्र में पहुंचने का अवसर मिलता है।
2.लोकतंत्र मतक्य – मतभेद (सहमति – असहमति) का शासन माना जाता है इसलिए गठबंधन सरकार अनुकूल वातावरण निर्मित करती है जहां सतही मतभेदों को भुलाकर राजनीतिक दल एक दूसरे के साथ जुड़ने का प्रयास करते है।
3.गठबंधन सरकार के होने से राष्ट्रीय मुद्दों का भी विस्तार देखने को मिलता है क्योंकि प्रत्येक दल राज व्यवस्था में अपनी उपस्थिति को प्रभावी बनाने के लिए विभिन्न मुद्दों पर कार्य करता है।
4.गठबंधन सरकार एकदलीय प्रभुत्व की व्यवस्था का निषेध करती है जिसके कारण यह लाभ मिलता है कि शासन निरंकुश नहीं हो पाता और शासन का उद्देश्य विशुद्ध जनकल्याा बना रहता है।
5.गठबंधन सरकार होने से उन दलों को भी सत्ता से जुड़ने का मौका मिलता है जो दल किसी अल्पसंख्यक समुदाय अथवा सदुरवर्ती क्षेत्र से सम्बन्धित होते है और इस कारण राष्ट्रीय विकास की योजनाएं सर्वसमाावेशी प्रकृति की हो पाती है।
गठबंधन सरकार के दुष्परिणाम
1.लोकतंत्र स्थायित्व एक मुख्य विशेषता है लेकिन गठबंधन सरकारें स्थिरता के विषय को हितों के आगे गौण कर देती है जिसके कारण लोकतांत्रिक परिपक्वता को नुकसान पहुँचता है।
2.गठबंधन सरकारें विघटनकारी प्रवृतियों को बढ़ावा देती है क्योंकि इन सरकारों में शामिल दल संर्कीण हितों का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं जिससे राष्ट्रीय हितों को गौा परिदृश्य प्रदान किया जाता है।
3.गठबंधन सरकार से क्षेत्रीय आकांक्षाऐं इतनी प्रभुत्वशाली हो जाती है कि संघवाद सौदेबाजी के संघ के रूप में
रूपान्तरित हो जाता है और इन दलों को महत्व देने वाले राज्य अपने लिए विशेष सुविधाओं की अनावश्यक मांग प्रस्तुत करते है।
4.गठबंधन सरकार राष्ट्र को सशक्त विदेश नीति अपनाने से भी रोकती है जैसा कि श्रीलंका की तमिल समस्या के संदर्भ में भारतीय दृष्टिकोण को प्रभावित करने में राज्यों की राजनीति ने गठबंधन सरकार को प्रभावित किया है।
5.गठबंधन सरकार के होने से भविष्य में राजनैतिक दलों की संख्या में वृद्धि को प्रोत्साहन मिलता है जिसके कारण चुनावी व्यवस्था अति बहुदलीयता के भाव से ग्रस्त हो जाती है जो स्वस्थ लोकतंत्र के विकास में अनुपयुक्त दशा है जिसका परिणाम अंततः राजनीतिक दिशाहीनता में देखा जाता है।
भारतीय राजनीति का वर्तमान परिदृश्य निश्चय ही गठबंधन सरकार की अनिवार्यता को स्वीकारोक्ति दे चुका है। इसके अतिरिक्त गठबंधन का दृष्टिकोण गठबंधन के शीर्ष नेतृत्व से सदैव प्रभावित और मार्गदर्शित होता है और गठबंधन सरकार के कारण ही राजनीति सक्रियता और गतिशीलता का तत्व दिखायी देता है और नागरिक समाज की गतिविधियों को यह विचार-विमर्श का मंच प्रदान करता है अतः गठबंधन सरकार भारतीय राजनैतिक व्यवस्था के अंतर्गत एक नवीन प्रतिमान के रूप में विकसित हुआ परिदृश्य है जिसका प्रभाव निकट भविष्य के उत्तरोत्तर वृद्धिकारक प्रतीत हो रहा है।
प्रश्न:- संसदीय शासन के अंतर्गत पिछले कुछ समय से असंसदीय प्रकार की गतिविधियों में वृद्धि हुई है जिसने संसदीय शासन की स्वस्थ परम्पराओं को क्षति पहुंचाया है। कथन की समीक्षा कीजिये।
उत्तर. संसदीय शासन उस व्यवस्था को कहते है जिसमें शासन के तीनों अंगों (व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका) के मध्य संतुलन सामंजस्य पाया जाता है साथ ही कार्यपालिका अर्थात् सरकार अपनी संरचना, नीतियों और कार्यो के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी होती है।
संसदीय शासन प्रक्रियाओं, नियमों और परम्पराओं के लिए जाना जाता है, लगभग सात दशकों में भारतीय संसद इस व्यवस्था का निर्वहन करती नजर आयी परन्तु संसदीय व्यवस्था में पिछले कुछ समय से राजनीतिक सक्रियता के कारण और संसदीय व्यवस्था में नवाचारों के अभाव के कारण संसद अपनी परंपरागत श्रेष्ठता के आदर्श से दूर होती जा रही है।
संसदीय परंपरा में किसी भी विषय पर पर्याप्त तार्किक बहस को इसकें स्वस्थ तार्किक लक्षा के रूप में देखा जाता है परन्तु बहस का स्थान बहिष्कार की राजनीति और हंगामेदार बैठकों से लिया जाने लगा है। यहां तक कि संसद में पूछे जाने वाले प्रश्ननो का संदर्भ पैसे से जोड़कर देखा गया है। जिसके लिए कुछ वर्षो पूर्व ऑपरेशन चक्रव्यूह और ऑपरेशन दुर्योधन देखने को मिले।
संसदीय शासन में अध्यक्ष अपनी शक्ति परम्पराओं से ही प्राप्त करता है परन्तु अध्यक्ष के पद पर नियुक्त होने वाले व्यक्ति दलीय निष्ठा के आकर्षण में इतने अधिक व्यस्त है कि इनका उद्देश्य केवल सत्तारुढ़ वर्ग को लाभ पहुंचाना प्रतीत होता है जैसे अध्यक्ष के द्वारा विपक्ष के नेता को मान्यता देने में होने वाला विलम्ब और दल-बदल के आधार पर सांसदों की अयोग्यता का निर्धारण।
संसदीय परंपरा के अंतर्गत सांसदों से उच्च कोटि के नैतिक व्यवहार की अपेक्षा की जाती है लेकिन राजनीति मे बढ़ते अपराधीकरण और अपराधियों के बढ़ते राजनीतिकरण के कारण संसद के भीतर ऐसे सांसदों की संख्या में वृद्धि हुयी है, जिनका उद्देश्य संसदीय कार्यवाहियों को निरंतर बाधित और हिंसक व्यवहार का प्रदर्शन करना है।
इस प्रकार संसदीय परंपरा लोकतंत्र की परिपक्वता को सूचित करने वाला साधन है परन्तु जिस प्रकार से संसदीय परंपरा को असंसदीय व्यवहारों से क्षति पहुंच रही है इसके कारण संसदीय गतिविधियाँ ‘विरोध के लिए विरोध‘ के रूप में परिवर्तित हो रही है।
प्रश्न:- संसदीय विशेषाधिकार से क्या तात्पर्य है। इस प्रकार के विशेषाधिकारों का होना लोकतांत्रिक व्यवस्था में कितना सार्थक है? टिप्पणी कीजिए।
अथवा
संसदीय विशेषाधिकार के कारण संसदीय सर्वोच्चता की स्थापना से नागरिकों के मौलिक अधिकारों का विषय गौण हो जाता है कथन का परीक्षण कीजिए?
उत्तर. संसद देश की सर्वोच्च विधायी संस्था होने के नाते सांसदों को विभिन्न प्रकार के दायित्वों का निर्वहन करता होता है और राहत कार्य में स्वतंत्र और निर्बाध तरीके से कार्य कर सके इसलिए अनुच्छेद 105 में संसदीय विशेषाधिकार का समावेशन किया गया है।
संसदीय विशेषाधिकारों को व्यक्तिगत एवं सामूहिक दो वर्गो में विभाजित किये जाते है। जहां व्यक्तिगत विशेषाधिकार का संदर्भ सांसद की वाक् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से लिया जाता है जिसके अंतर्गत अधिकृत रूप से संसद के भीतर या बाहर कही गयी किसी बात के लिए सांसद को व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। उसी प्रकार संसद के सत्र के दौरान गिरफ्तारी और साक्षी होने से छुट/उन्मुक्ति प्राप्त होती है।
इसी प्रकार सामूहिक विशेषाधिकार में सदन को अपनी कार्यवाही के नियमन प्रकाशन, प्रसारण पर नियंत्रण अधिकार प्राप्त है और संसद अपने सदस्यों के विशेषाधिकारों की रक्षा करती है।
यद्यपि संसदीय विशेषाधिकार जिस उद्देश्य से प्रस्तुत किये गये थे उनका पालन अवश्य हुआ परन्तु सांसदों ने अपने विशेषाधिकार को अपनी असीमित स्वतंत्रता के रूप में परिवर्तित करके संसदीय विशेषाधिकार से आगे संसदीय अवमानना का प्रयोग प्रारम्भ किया है। लोकतंत्र में विचार एवं विरोध एक दूसरे से अंतर सम्बन्धित होते है, और इसी से लोकतंत्र की परिपक्वता एवं सफलता सुनिश्चित होती है। लेकिन संसदीय विशेषाधिकारों के कारण संसद ने एक
ऐसी संस्था के रूप में स्वयं को रूपान्तरित किया है जो जन प्रतिनिधि होते हुए भी जनता के विपक्ष में नजर आती है। संसदीय विशेषाधिकार को ‘‘सर्चलाइटवाद’’ में मूल अधिकारों पर प्राथमिकता दी गयी थी, लेकिन इसका सम्बन्ध केवल अनु.19 से ही था और 1980 के दशक से न्यायपालिका जिस प्रकार अनुच्छेद 21 को एक सर्वसमावेशी अधिकार बनाया है वहां संसदीय विशेषाधिकार को अनु. 21 के अधीन माना जा रहा है।
इस प्रकार संसदीय विशेषाधिकार लोकतंत्र की एक विशेषता अवश्य है परन्तु जिस प्रकार से संसदीय विशेषाधिकार ने संसद को अतिविशिष्ट व्यक्तियों की संस्था का स्वरूप प्रदान किया है उसने संसदीय भावना को निश्चित रूप से जनता के दृष्टिकोण से असम्मानजनक स्थितियों में पहुंचा दिया है। जिसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि संसद जो लोकतंत्र के मंदिर के रूप में जानी जाती है यह केवल विरोध प्रदर्शनों और अपनी सत्ता को स्थायित्व देने के उद्देश्य से एकत्रित व्यक्तियों के संस्थान के रूप में परिवर्तित हो गयी।
प्रश्न:- निर्वाचन सुधारों पर टिप्पणी लिखिये?
उत्तर.- मॉरिस जॉनसन के अनुसार चुनाव उन असंख्य कार्यो में से एक है जिनमें भारतीय सदैव अच्छा प्रदर्शन करते है। निर्वाचन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में इसके सिद्धांत को मिलाने की प्रक्रिया है। इस प्रकार निर्वाचन का सम्बन्ध संरचना और प्रक्रिया दोनों विषयों से होने के कारण निर्वाचन सुधार के अंतर्गत दोनों का ही विश्लेषण आवश्यक है। भारत में चुनाव सुधारों का ऐतिहासिक परिदृश्य 1970 से माना जाता है, जब से भारत ने राजनीतिक परिवर्तन का प्रमुख तत्व दृष्टिगत हुआ और भारत की राजनीति में एकदलीय प्रभुत्व को चुनौती प्राप्त हुयी। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में नागरिक समाज का पहला दृष्टांत समग्र क्रांति में देखा गया और इसके बहुपक्षीय स्वरूप के अंतर्गत राजनीतिक सुधारों को चुनाव सुधारों का संदर्भ दिये जाने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुयी। जिसके लिए ‘‘सिटीजन और डेमोक्रेसी’’ के अंतर्गत 1974 में तारकुण्डे समिति प्रथम संस्थागत सुधार के रूप में गठित हुयी और तब से यह प्रक्रिया विकासमान है।
चुनाव सुधारों का सम्बन्ध चुनावी प्रक्रिया की समस्याओं से है परन्तु गतिशील राजनीति में निर्वाचन सम्बन्धित समस्याएं भी परिवर्तित होती है और इसलिए धनबल तथा भुजबल से प्रारम्भ हुआ यह दृश्य 3M अर्थात् मनी, मसल्स, माफिया पॉवर के रूप में विकसित हुआ। निर्वाचन के संस्थागत तरीकों में कई बदलाव आए जैसे मताधिकार की आयु सीमा घटायी गयी, मतदाता पहचान पत्र के प्रयोग को प्रसारित किया गया, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का प्रयोग होने लगा इत्यादि। परन्तु निर्वाचन के सम्पूर्णा तंत्र में नयी कमियाँ दिखायी देने लगी।
इस अवधि में राजनीति का अपराधीकरण एक चर्चित समस्या के रूप में देखा गया और बोहरा कमेटी ने इस पर ध्यान केन्द्रित किया। 1990 के दशक में ही चुनाव आयोग के एक सदस्य होने पर विचार हुआ और सशक्त चुनाव आयोग टी.एन. सेशन के नेतृत्व में चुनाव सुधारों को राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना से जोड़ा।
21 वीं सदी में वैश्वीकरण के प्रभाव से और नागरिक समाज के सशक्त होने के विचार में चुनाव सुधार को लोकतांत्रिक सुधारों तथा लोकतांत्रिक स्थायित्व से जोड़ा और विविध आयोग की रिपोर्टों में इसका संदर्भ रेखांकित किया गया। निर्वाचन आयोग ने भी शक्ति दिखाते हुए राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए चुनावी आचार संहिता को केन्द्र में रखते हुए इसके पालन को प्रभावी बनाया। दलों को निर्देश दिए गए कि वे चुनावी घोषणा पत्र में उल्लेखित किए गए वायदों को क्रियान्वित करने के तंत्र के बारे में सूचित करेंगे।
नवीनतम चुनाव सुधारों के अंतर्गत ‘‘राईट टू रिकॉल और राइट टू रिजेक्ट’’ पर विचार होने लगा है। राइट टू रिकॉल को जहां निर्वाचित प्रत्याशी के लोगों की अपेक्षाओं पर सही साबित होने के मनोवैज्ञानिक प्रभाव से संदर्भित किया गया है वहीं ‘राइट टू रिजेक्ट को नोटा’ की प्रक्रिया के माध्यम से दलों पर एक चुनाव पूर्व मनोवैज्ञानिक प्रभाव है। जिसके अंतर्गत दलों पर एक चुनाव पूर्व मनोवैज्ञानिक प्रभाव है जिसके अंतर्गत दलों को उम्मीदवार के चयन की प्रक्रिया में सुधार करने का संदेश प्रसारित हुआ है।
इस प्रकार चुनाव सुधार भारत की राजनीति के अंतर्गत एक ऐसा विषय है जिस पर निरंतर विचार विमर्श की आवश्यकता है ताकि इसकी वास्तविक समस्याओं को पहचाना जा सके और इसके सुधार के क्रम बहुपक्षीय समन्वय को विकसित किया जाये जिसके अंतर्गत सर्वोच्च न्यायलय, चुनाव आयोग, मीडिया समूह, गैर सरकारी संगठन और नागरिक समाज प्रभावी भूमिका का निर्वहन करें।
प्रश्न:- समान नागरिक संहिता से क्या आशय है। भारत में समान सिविल संहिता के लागू होने के कौनसी परिस्थितियां बाधक है?
अथवा
समान नागरिक संहिता का निर्धारण देश के पंथ निरपेक्ष स्वरूप के साथ किस सीमा तक सांमजस्यपूर्ण व्यवस्था है टिप्पणी कीजिए।
उत्तर. संविधान के अनुच्छेद 44 में राज्य नीति के निदेशक तत्वों के अंतर्गत एक समान सिविल संहिता को लागू किये जाने का विचार दिया गया है। इसका सरोकार इस देश में रहने वाले विविध धर्मों, जातियों एवं संस्कृतियों के लोगों का उनके निजी व्यवहारों के पक्षों जैसे विवाह, तलाक उत्तराधिकारी एवं सम्पत्ति के सम्बन्ध में देश की सामान्य विधियों के अधीन लाया जाये ना कि उनकी पृथक – पृथक धार्मिक विधियों के अधीन लाया जाये।
समान सिविल संहिता संदर्भ 1986 के शाहबानों प्रकरण से चर्चित बना जहां शरीयत के प्रावधानों को लागू करने के लिए दीवानी संहिता को कमजोर बनाया गया और माननीय सर्वोच्च न्यायालय के र्निणय को संसद के द्वारा कट्टरपंथी धार्मिक उलेमा वर्ग के दबाव में मुस्लिम महिला भरण-पोषा एवं तलाक अधिनियम को स्थापित किया गया। ऐसा ही प्रश्न:- 1995 के सरला मुद्गल वाद और डेनियल लतीफी तथा जॉन बलात्म वाद में समान सिविल संहिता का प्रश्नन विचारणीय प्रश्न बना।
समान नागरिक संहिता के विषय पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय का दृष्टिकोण सकारात्मक है और उसके अनुसार निजी विधियाँ और लोक विधियों में धर्म का संदर्भ लिया जाना देश के पंथनिरपेक्ष चरित्र का उल्लंघन और साथ ही एक देश में विरोधाभासी क़ानूनों को जन्म देने का प्रयास है परन्तु वर्तमान समय तक भी इस दिशा में कोई सार्थक प्रगति अभी तक नहीं देखी गयी है बल्कि सरकारों का रूझान इस दिशा में नकारात्मक ही रहा है।
समान नागरिक संहिता को लागू करने में कुछ बाधायें हैं:-
क़ानूनों की सफलता जन सहमति पर निर्भर करती है और इसलिए क़ानूनों को थोपे जाने से यह विषय नहीं सुलझ सकता है इसलिए आवश्यकता है कि विभिन्न धर्मों के अनुयायियों को कानून की प्रकृति और उसके उद्देश्य का ज्ञान कराके कानून के पक्ष में व्यापक माहौल निर्मित किया जाये।
धर्म के व्याख्याकारो मे विशेष प्रकार की कट्टर संकीर्ा सोच विद्यमान होती है और इसलिए इनकी धार्मिक व्याख्याये
धर्म के मूल तत्वों से विरोधी होती है अतः आवश्यकता इस बात की है कि धर्म के मूल सिद्धांतों का व्यापक प्रचार-प्रसार कराया जाये और जन सामान्य से धर्म के सम्बन्ध में संवाद की प्रक्रिया से जोड़ा जाये।
भारत में वोट बैंक की राजनीति समान नागरिक संहिता में लागू होने में एक अन्य बाधा है। चूंकि इसका सम्बन्ध अल्पसंख्यकों के द्वारा इस विषय को सदैव विवादस्पद बनाये रखना एवं राजनीतिक धु्रवीकरण के लिए सहायक है। अतः वोट बैंक की राजनीति का त्याग करना होगा और नागरिक समाज की संस्थाओं को जनशिक्षण एवं जनजागृति को बढ़ावा देने का प्रयास करने होगें।
अतः समान नागरिक संहिता भारतीय राज व्यवस्था के अंतर्गत एक ऐसा विषय है जिसका सरोकार धर्म तथा धार्मिक विधियों, पंथनिरपेक्षता, सामाजिक संरचना, महिला समानता एवं सशक्तिकरण तथा राजनीतिक स्तर पर लाभ की आकांक्षा एवं न्यायिक दृष्टिकोण जैसे विषयों से संबंधित होने के कारण इस विषय पर समग्र एवं संतुलित कार्यवाही करने की आवश्यकता है ताकि सामाजिक व्यवस्था के भीतर ही यह विषय अधिकतम संभव मात्रा में समाधान तक पहुंच सकें।
राजनीतिक गत्यात्मकता (भारतीय राजनीति में गत्यात्मक प्रवृत्ति)
- राज्य निर्माण,
- राष्ट्र निर्माण,
- नेतृत्व व नेतृत्व का संकट,
- आर्थिक विकास,
- राजनीतिक स्थिरता,
- संसद बनाम न्याय पालिका,
- आपात काल का संदर्भ,
- धर्म, जाति एवं नृजातीयता से विघटन का संकट,
- विदेश नीति पर चिंतन एवं पुनर्चिंतन,
- वैश्वीकरण का प्रभाव,
- वैश्विक चुनौतियों एवं संकटों का संदर्भ,
- नागरिक समाज एवं राजनीतिक सुधार।
भारतीय राजनीति में 1950 से अब तक कई सारे तत्व इसकी गतिशीलता में सहायक सिद्ध हुए हैं लेकिन प्रारंभिक मुद्दा राज्य निर्माण एवं राष्ट्र निर्माण का है।
1.राज्य निर्माण – भौगोलिक एवं प्रशासनिक एकीकरण जो देश के राजनीतिक नेतृत्व, आर्थिक विकास एवं लोक कल्याण से निर्धारित होता है।
2.राष्ट्र निर्माण – भावनात्मक एवं सांस्कृतिक एकीकरण जिसमें राष्ट्रीय निष्ठा, राष्ट्रीय सुरक्षा व राष्ट्रीय प्रेम विकसित होता है।
1950 से 1970 तक की अवधि में एक दलीय प्रभुत्व, नेहरू का राष्ट्रीय नेतृत्व, कृषि व औद्योगिकरण पर बल तथा समाजवाद पर आधारित आदर्श समाज की स्थापना व विदेश-नीति में आदर्शमूलक गुटनिरपेक्षता ऐसे कारक हैं जिन्होंने भारतीय राजनीति को अतिशील बनाया। यद्यपि इस दौर में राजनीति वैदेशिक मोर्चे पर सकारात्मक परिणाम नहीं दे सकी।
1970 के दशक में नेतृत्व का संकट और एक दलीय प्रभुत्व को चुनौती भारतीय राजनीति हेतु निर्धारक सिद्ध हुए परन्तु भारतीय राजनीति इस समय राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर अत्यधिक सफल सिद्ध हुई। जहाँ एक ओर गरीबी हटाओ जैसे आकर्षक नारे व संविधान का संरक्षा जैसे मुद्दे प्रधान बने वहीं 1971 में यथार्थवाद पर आधारित विदेश नीति का परिणाम भारत-सोवियत मैत्री संधि, बांग्लादेश निर्माण में भारत की भूमिका, परमाणु परीक्षण एवं सिक्किम का भारत में विलय भारतीय राजनीति में नवीन गतिशीलता का संकेत दे रहे थे।
एक दलीय प्रभुत्व – ऐसी स्थिति जिसमें कई दल विद्यमान होने पर भी एक ही दल केन्द्र व राज्यों में सत्तारूढ़ बना रहता है। (1950 से 1967 का कांग्रेस तंत्र) रजनी कोठारी लेकिन इसी दशक में भारतीय राजनीति में दो बड़े विघटनकारी तत्व देखे गये। जहाँ 1975 में आपातकाल ने भारत की लोकतांत्रिक संस्कृति को क्षति पहुँचाई वहीं दूसरी ओर भारत की चुनावी राजनीति विवादों के कारण चर्चित हुई और यहीं से भारत में चुनाव सुधार पर प्रयास प्रारंभ हुए।
1980 के दशक में भारतीय राजनीति धर्म, जाति, वर्ग व नृजातियता के तत्वों से संबंधित हो गई जिसने एक ओर भारतीय राजनीति की गतिशीलता में निर्वाचन प्रणाली को प्रभावित किया वहीं इस दौर में विघटनकारी प्रवृत्तियाँ (पंजाब व जम्मू कश्मीर में आतंकवाद तथा उत्तरपूर्वी राज्यों में अलगाववाद) के रूप में सामने आईं।
1990 के दशक के पूर्व में ही भारतीय राजनीति में गठबंधन राजनीति को प्रारंभ कर दिया था और इसी समय वैश्वीकरण के प्रारंभ ने भारतीय राजनीति के सम्मुख जहाँ एक ओर अवसर पैदा किए वहीं दूसरी ओर वैश्विक चुनौतियों जैसे मानवाधिकार उल्लंघन, ग्लोबल वॉर्मिंग, आर्थिक संकट, लैंगिक उत्पीड़न, मानव तस्करी, शरणार्थी-विस्थापित संकट, वैश्विक आतंकवाद, साइबर चुनौतियाँ सामने आईं।
21वीं सदी में भारतीय राजनीति परंपरागत मुद्दों के साथ नये विषय ग्रहण कर चुकी है।
‘नागरिक समाज‘ की जागरूकता, सोशल मीडिया का प्रयोग, प्रशासनिक सुधारों के प्रति चेतना, भ्रष्टाचार निवारण व सुशासन की अवधारणा ने भारतीय राजनीति में नये प्रकार के तत्व शामिल कर दिये। इन विभिन्न आयामों में भारतीय राजनीति कई संवैधानिक व संवैधानेतर प्रवृत्तियों से संयुक्त हुई है जिसमें एक ओर धर्म, जाति, क्षेत्र के परंपरागत मुद्दे अभी भी राजनीति को गतिशील बनाये हुए हैं वहीं दूसरी ओर भारतीय संघवाद में एक नया उभार
देखने को मिला है और समावेशी विकास का मुद्दा भारतीय राजनीति की गतिशीलता का नया संकेतक बन गया है।
नागरिक समाज/सिविल सोसायटी – राज्य के व्यवस्थित प्रशासनिक तंत्र से सामाजिक मुद्दों/सरोकारों पर अंतःक्रिया करने वाला सक्रिय, बुद्धिजीवी, संवेदनशील नागरिकों का समूह।
नागरिक समाज आधुनिक विश्व में लोकतांत्रिक राज्यों की राजनीतिक गतिशीलता में सहायका सिद्ध हुआ है व भारत में नागरिक समाज, सामाजिक आंदोलनों के माध्यम से सामाजिक न्याय, राजनीतिक सुधार, आर्थिक प्रगति एवं प्रशासनिक विकास का माध्यम बन कर उभरा है जिसे गैर सरकारी संगठनों एवं न्यायिक सक्रियता के माध्यम से भारतीय राजनीति में मुख्य आधार प्राप्त हो गया है।
सुशासन – ऐसा प्रशासन जो संवेदनशील, स्थायी, कुशल, प्रशिक्षित, जनोन्मुखी, नवाचार प्रेरित, उत्तरदायी, जवाबदेही, संतुलित, निष्पक्ष, पारदर्शी, समयबद्ध व नवीनतम तकनीकी ज्ञान से युक्त हो, वही सुशासन है।
सुशासन का विचार सरकारों व प्रशासन को जनता से निरंतर सम्पर्क बनाये रखने हेतु उत्प्रेरित करता है तथा जन समस्याओं का त्वरित निस्तारण के प्रयास करता है जिससे लोक कल्याणकारी राज्य के आदर्श को साकार किया जा सके।
भारतीय राजनीति की गत्यात्मकता – राष्ट्रीय एकता एवं अखण्ड़ता से जुड़े मुद्दे –
- साम्प्रदायिकता: अवधाराा, अर्थ, परिभाषा, उद्गम प्रसार, प्रभाव/दुष्परिणाम, नियंत्रण के उपाय;
- नक्सलवाद
- आतंकवाद
- अलगाववाद
साम्प्रदायिकता – एक धार्मिक समूह द्वारा अपनी धार्मिक श्रेष्ठता व दूसरे धर्मों के प्रति निकृष्टता का भाव ही साम्प्रदायिकता है।
किन्हीं दो धर्मों के मध्य उनके कर्मकांडीय पक्षों पर ना केवल अंतर पाया जाता है बल्कि मतभेद भी पाए जाते हैं और जब यह मतभेद धार्मिक कट्टरता, धार्मिक असहिष्णुता व धर्मान्धता में परिवर्तित हो जाता है तो इसे साम्प्रदायिकता कहा जाता है।
साम्प्रदायिकता के कारण बताइए –
- ऐतिहासिक कारण – साम्प्रदायिकता ब्रिटिशकालीन नीतियों का उत्पाद है क्योंकि राष्ट्रीय आंदोलन में हिन्दू-मुस्लिम एकता को खंडित करने के उद्देश्य से ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘‘फूट डालो राज करो‘‘ की नीति का जिस प्रकार से प्रचार किया गया उसने वर्षों से एक ही स्थान पर रह रहे हिन्दू व मुस्लिमों के मध्य संघर्ष के भाव विकसित कर दिये और इसके उदाहरणणस्वरूप/प्रतीक स्वरूप – बंगाल विभाजन, मुस्लिम लीग की स्थापना व पृथक साम्प्रदायिक निर्वाचन की शुरूआत मुख्य कारक है।
- मनौवैचारिक कारण – सांप्रदायिकता एक विशेष प्रकार की मनःस्थिति है क्योंकि समाजीकरण की प्रक्रियाओं द्वारा व्यक्ति जीवन पर्यंत सांप्रदायिक विचारों में शिक्षित व प्रशिक्षित होता रहता है जिसमें परिवार, सामाजिक संबंध, शैक्षणिक संस्थायें, मित्र समूह और विचार-विमर्श की संस्थाएं महत्वर्पूण भूमिका निभाती हैं, इसके कारण व्यक्ति का मनोमस्तिष्क धर्म व संप्रदाय के विभेद को भूलकर सांप्रदायिक प्रकृति में अभ्यस्त हो जाता है।
- धार्मिक सांस्कृतिक कारण – धर्म में तर्क की जगह श्रद्धा, भक्ति व विश्वास का स्थान होता है और धर्म मजबूत भावनात्मक शक्ति के कारा लोगों का ध्रुवीकरण करवाता है। विभिन्न धर्म गुरूओं द्वारा की जाने वाली धर्म की विकृत व्याख्याएं धर्म की समझ को नष्ट कर देती हैं तथा धर्म के नाम पर केवल धार्मिक आडम्बरों तथा धार्मिक विधियों की कट्टरता पाई जाती है जिसके कारण ‘‘एक धर्म को दूसरे धर्म से खतरा है‘‘ यह प्रचारित करके सांप्रदायिकता का वातावरण बनाये रखा जाता है।
- राजनीतिक कारण – सांप्रदायिकता धर्म के राजनीतिकरण से विकसित होती है। राजनीतिक सत्ता की चाह में विभिन्न राजनीतिक दल एवं उम्मीदवार वोट बैंक की राजनीति, संप्रदाय विशेष का तुष्टीकरण व मतों का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करते हैं जिसके कारण उनकी सत्ता में पहुँच सुनिश्चित हो पाती है। 1980 के दशक से भारतीय राजनीति में धर्म का प्रयोग एक महत्वर्पूण व्यवहार बन चुका है जिसने सांप्रदायिकता में निरंतर वृद्धि की है।
- आर्थिक कारक – आर्थिक अभावों की उपस्थिति तथा आर्थिक संसाधनों के वितरण में असमानता के कारण भी सांप्रदायिकता का विस्तार होता है, क्योंकि जब एक धर्म या संप्रदाय के व्यक्ति को दूसरे संप्रदाय के व्यक्ति से अपने आर्थिक संसाधन छिन जाने का खतरा होता है तो व्यक्ति को सांप्रदायिक आचरण में समय नहीं लगता साथ ही किसी क्षेत्र विशेष में उद्योग धंधों के बंद हो जाने के कारण बढ़ती हुई बेरोजगारी सांप्रदायिक उद्देश्यों हेतु मानवीय संसाधन आसानी से उपलब्ध करवा देती है।
- विविध कारण – ऐसे कुछ तात्कालिक कारण हैं जो सांप्रदायिकता में सहायक हैं जैसे – धार्मिक जुलूस व शोभायात्राओं के विवाद, संप्रदाय विशेष की महिलाओं से छेड़छाड़, गौवध, धर्मान्तरण की घटनाएं इत्यादि। साम्प्रदायिकता के प्रभाव
- सांप्रदायिकता धार्मिक अविश्वास को बढ़ावा देती है,
- राष्ट्र निर्माण पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है,
- राष्ट्र की पंथनिरपेक्ष छवि को नुकसान होता है,
- औद्योगिक विकास में बाधा,
- पर्यटन एवं निवेश में कमी,
- दूषित मुद्दों का राजनीति में समावेशन,
- दंगों में हिंसा से व्यापक जन-धन की क्षति,
- अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर राष्ट्र को नुकसान।
साम्प्रदायिकता पर नियंत्रण के उपाय
- वैचारिक शुद्धिकरण को प्रोत्साहन दिया जाए,
- तिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा प्रदान की जाये,
- समाजीकरण की संस्थाओं के माध्यम से व्यक्तियों के विचारों में सौहार्द की भावना का विकास किया जाए,
- विभिन्न धर्मों के मध्य संवाद बढ़ावा दिया जाए,
- शांति समितियों की स्थापना की जाए जिसमें क्षेत्र के बुद्धिजीवी व सामाजिक कार्यकर्ता इत्यादि शामिल हों,
- धर्म के आधार पर जो राजनीतिक दल मतों का ध्रुवीकरण करें, उन्हें चुनाव आयोग द्वारा प्रतिबंधित करने की व्यवस्था हो,
- राज्य के आसूचना तंत्र को मजबूत बनाया जाए,
- मीडिया व पुलिस प्रशासन सांप्रदायिक दंगों के समय सकारात्मक भूमिका का निर्वाह करें,
- रोजगार व विकास के साधनों में वृद्धि करके व्यक्तियों को सोहार्द के वातावरण में प्रशिक्षित किया जाए,
- दंगों के दौरान की गई हिंसा को नियंत्रित करने हेतु क़ानूनों का कठोरता पूर्वक पालन किया जाए और इस संबंध में द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्टों (7 व 8वीं) को प्रभावी ढंग से लागू किया जाए।
नक्सलवाद
सामाजिक अन्याय एवं शोषण के विरोध स्वरूप स्थानीय निवासियों (भूमिहीन कृषकों, जनजातियों) द्वारा 1967 में प्रारंभ हिंसक आंदोलन।
अथवा
प. बंगाल के नक्सलबाड़ी से प्रशासनिक उदासीनता एवं शोषण के प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पीड़ित वर्ग का हिंसक या सशस्त्र संघर्ष।
1967 में चारू मजुमदार व कानू सान्याल और जंगल संथाल के नेतृत्व में जल, जमीन व जंगल की लड़ाई के रूप में यह आंदोलन विकसित हुआ तथा 8 ऐतिहासिक प्रलेखों एवं माओवादी हिंसक क्रांति के दर्शन पर इस आंदोलन का प्रारंभ हुआ जो वर्तमान परिदृश्य में भारत की राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती के रूप में प्रस्तुत हुआ है।
नक्सलवाद का प्रसार-
5 दशकों के भीतर नक्सलवाद की तीव्रता और इससे मिलने वाली चुनौती अत्यधिक बढ़ गई है तथा यह आंदोलन भारत की लोकतांत्रिक संस्कृति पर हिंसक ‘‘बंदूक संस्कृति‘‘ को स्थापित करना चाहता है और छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, प. बंगाल के विभिन्न क्षेत्रों तक नक्सलवाद का व्यापक विस्तार है।
नक्सलवाद अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाते हुए ‘लाल गलियारा‘ (Red Corridor) स्थापित करना चाहता है साथ ही, एक क्षेत्र में इनका दमन होने पर इनका पलायन दूसरे राज्यों में होने से नक्सलवादियों ने कुछ राज्यों में मिलाकर ‘द डकार य क्षेत्र‘ स्थापित कर लिया है।
1980 के दशक से नक्सलवाद PWG (People’s War Group) और माओवादी कम्यूनिस्ट सेंटर
(MCC) तथा विभिन्न दलों की कठोर संरचना से विकसित हुआ है जिसमें नागभूषण पटनायक व कोडापल्ली
सीतारमैया जैसे नेतृत्व महत्वर्पूण रहे हैं और 2004 में विभिन्न दलों के विलय से ‘‘भारतीय साम्यवादी दल
(माओवादी)‘‘ को मज़बूती प्राप्त हुई है तथा उत्तर. पूर्व के माओवादी संगठन से मिलकर यह आंदोलन भारतीय आंतरिक सुरक्षा के समक्ष बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया है।
नक्सलवाद के कारण
- सामाजिक न्याय के अभाव से पीड़ित वर्ग,
- क्षेत्र विशेष के निवासियों के मानवाधिकारों का निरंतर हनन,
- स्थानीय समस्याओं के समाधान के प्रति प्रशासनिक उदासीनता,
- पुलिस प्रशासन का निरंकुश व अनुचित व्यवहार,
- कुछ क्षेत्रीय असंतुलित विकास एवं पिछड़ापन,
- सरकारों की दोषर्पूण भूमि अधिग्रहा नीतियाँ,
- नक्सली क्षेत्रों में खनन माफियाओं का प्रभाव,
- वैदेशिक षडयंत्रों से शस्त्र व धन की आपूर्ति,
- पुलिस प्रशासन को स्थानीय निवासियों का सहयोग न मिल पाना,
- इस क्षेत्र में सूचना तंत्र की कमजोरियाँ,
- पुलिस व सैन्य बलों में आधुनिकीकरण का अभाव।
दुष्परिणाम
- नक्सलवाद देश की आंतरिक सुरक्षा को संवेदनशील बनाता है।
- नक्सलवाद भारत के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसा अंतर विकसित करता है जो देश के समग्र विकास में बाधक है।
- नक्सलवाद कुछ क्षेत्रों का आधुनिकीकरण नहीं होने देता है, फलस्वरूप क्षेत्रीय असंतुलन अन्य समस्याओं को भी जन्म देता है।
- नक्सलवाद देश के आंतरिक परिदृश्य में विदेशी शक्तियों को आमंत्रित करता है।
- नक्सलवाद के कारण भारत में जनजातियों के साथ मानवाधिकार हनन का विषय अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत की स्वस्थ छवि को बाधा पहुँचाता है।
- नक्सली हिंसा से पुलिस व प्रशासन के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिससे इन्हें अपने दायित्वों के निर्वहन में कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
समाधान के उपाय/नियंत्रण
नक्सलवाद को नियंत्रित करने हेतु सरकारी स्तर पर कई प्रयास किये गये हैं। 1970 के दशक में
‘‘ऑपरेशन स्टीपलचेज‘‘ का प्रारंभ किया गया, इसके अतिरिक्त ‘‘ऑपरेशन ग्रे हाउड्स‘‘, ऑपरेशन ग्रीन हंट कॉबरा बटालियन का निर्माण, सलता जुडूम (छत्तीसगढ़), रोशनी परियोजना जैसे कार्य किये गए हैं परन्तु अब भी कई प्रयास किए जाने आवश्यक हैं –
- संतुलित क्षेत्रीय विकास को प्रोत्साहन दिया जाए।
- नक्सली क्षेत्रों में सुरक्षा बलों का आधुनिकीकरण किया जाए।
- सेना, अर्ध सैनिक बलों व पुलिस के मध्य समन्वय को बढ़ावा दिया जाए।
- प्रशासनिक संवेदनशीलता को बढ़ावा दिया जाए।
- पिछड़े हुए क्षेत्रों के विकास के लिए बजट प्रावधानों में अलग से व्यवस्था की जाए।
- नक्सली हिंसा का त्याग कर चुके युवाओं को मुख्य धारा में लाया जाए।
- नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में आधार भूत संरचनाओं के विकास पर ध्यान दिया जाए।
- स्थानीय लोगों को प्रशासन से जोड़ने के लिए स्थानीय भाषा का उपयोग व प्रदर्शनियों, लोक कलाओं/मेलों के आयोजन, नुक्कड़ नाटक इत्यादि को प्रचारित किया जाए।
- नक्सली हिंसा का समाधान करने हेतु सुरक्षा नेटवर्क और वैदेशिक सहायता पर ध्यान देते हुए उचित कदम उठाए जायें।
अलगाववादी मुद्दे
- वामपंथी अतिवाद/चरमपंथ/उग्रवाद,
- दक्षिणपंथी, अतिवाद/ चरमपंथ/उग्रवाद,
- क्षेत्रवाद,
- पृथकतावाद,
- नृजातीय संघर्ष,
- धार्मिक आतंकवाद,
- वित्तीय आतंकवाद,
- भूमि पुत्र का विचार,
- स्वायत्तता की मांग,
- भाषा का प्रश्न,
- अवैध घुसपैठ,
- संघर्ष के अन्य क्षेत्र।
अलगाववाद
राष्ट्रीय भावना के विपरीत अपने पृथक अस्तित्व को धर्म, क्षेत्र, जाति, नृजाती, भाषा के आधार पर पहचान दिए जाने की भावना।
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- अलगाववाद को पृथकवाद, क्षेत्रवाद, स्वायत्तता की मांग से संबंधित करके देखा जाता है, यद्यपि तकनीकी आधार पर सभी में अंतर है।
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- पृथकतावाद के अंतर्गत भारत संघ से पृथक एक स्वतंत्र व संप्रभु अस्तित्व की माँग की जाती है, जेसे – पृथक नागालैंड राष्ट्र की माँग (म्यांमार, मिजोरम, नागालैंड को मिलाकर ग्रेटर नागालै ड की मांग)
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- क्षेत्रवाद – क्षेत्र विशेष के निवासियों द्वारा आर्थिक पिछड़ापन और असंतुलित विकास के आधार पर अपने क्षेत्र को अन्य क्षेत्रों या राज्य की तुलना में प्रधानता देने की भावना।
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- राज्यों की स्वायत्तता – एक राज्य विशेष के द्वारा अपने लिये अधिक आर्थिक सहायता, अधिक प्रतिनिधित्व व विशेष दर्जे की मांग तथा अपने मामलों के निर्धारण में अधिकतम स्वतंत्रता (द. भारत में द्रविड़ राज्य के स्थान पर तमिल स्वायत्तता की मांग)
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- वामपंथी चरमपंथ – सामाजिक राजनीतिक जीवन में आमूलचूल/ मूलभूत परिवर्तन लाने के उद्देश्य से, माओवादी विचारधारा पर आधारित हिंसक संघर्ष (भारत में प्रचलित नक्सलवाद)।
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- दक्षिणपंथी अतिवादी – धार्मिक एवं सामंती संस्कृति पर आधारित जो समाज के प्रचलित ढाँचे के बनाये रखते हुए किसी भी परिवर्तन का हिसंक विरोध करे (जाति व संप्रदाय के संघर्ष – उदाहरण)।
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- नृजातीयता – एक जैसा ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, समान सांस्कृतिक ढाँचा व एक भौगोलिक स्थिति के आधार पर दूसरों से पृथकता रखना एवं अलग अस्तित्व का विषय। (पूर्वी पाक व पश्चिमी पाक का अंतर)
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- नस्ल – एक जैसी शारीरिक बनावट, समान रहन-सहन व एक समान रीति रिवाज के आधार पर पृथक दिखाई देने वाला समूह नस्ल कहलाता है।
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- भूमिपुत्र विचार – एक क्षेत्र विशेष के लोगों द्वारा दूसरे क्षेत्र के लोगों के प्रवेश पर रोक लगाना और सभी लाभों को सिर्फ स्वयं के लिये संरक्षित करना।
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- भाषावाद – एक भाषा के समृद्ध इतिहास व उसकी लोकप्रियता को आंदोलनों के माध्यम से पृथक राज्य के निर्माण हेतु प्रोत्साहन देना। (भाषाई आधार पर आंध्र प्रदेश का निर्माण)
- आतंकवाद – राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक उद्देश्यों के लिये व्यापक पैमाने पर हिंसा का नियोजित प्रयोग ही आतंकवाद है।
आतंकवाद भारतीय परिदृश्य में यद्यपि 1946 में नगा ‘नेशनल काउंसिल‘ (NNC) के माध्यम से पृथक नागालै ड की माँग के रूप में देखा गया था लेकिन भारत में आतंकवाद 1980 के दशक से विचारणीय बना जब अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम के कारण पाक प्रायोजित आतंकवाद पंजाब व जम्मू कश्मीर में देखा गया।
पंजाब में आतंकवाद एक दशक में समाप्त हो गया परन्तु जम्मू कश्मीर में यह अभी भी जारी है और जम्मू कश्मीर के अलगाववादी आंदोलनों से जुड़ गया है।
इसी बीच उत्तरपूर्व में नृजातीय विभिन्नता और चीन के माओवादी दर्शन के प्रभाव से उत्तर. पूर्व का अलगाववाद भी जो वामपंथी अतिवाद की श्रेणी में आता है वहां ‘नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालै (NSCN), United Liberation Front of Assam (ULFA), National Democratic Front of Bodoland (NDFB) के द्वारा नागालै ड, असम, अरूणाचल प्रदेश, मिज़ोरम, मणिपुर व त्रिपुरा में आतंकी घटनाक्रम देखे गए हैं। उत्तर.पू. के ये अलगाववादी संगठन बांग्लादेश व म्यांमार के आतंकी संगठनों से गठजोड़ स्थापित कर रहे हैं जहाँ से इन्हें हथियार, धन और मानव सामग्री की पूर्ति हो रही है। अरविंद राजखोवा, अनूप चेतिया, परेश बरुआ जैसे नेतृत्व विदेशों में शरण ले रहे हैं।
यह आतंकवाद संगठित अपराधों के साथ भी जुड़ गया है जिससे मादक द्रव्यों की तस्करी, मानव तस्करी, नकली नोटों (मुद्रा) का प्रचलन, मनी लांड्रिंग (हवाला) जैसे कार्य भी इसमें शामिल हो गए हैं। अतः यह क्षेत्र बाहरी आतंक व भीतरी गृहयुद्ध दोनों ही प्रकार से संवेदनशील हो गया है।
उत्तर. पूर्वी भारत में अलगाववाद की समस्या पर लेख लिखिए।
अलगाववाद जिसका संबंध क्षेत्रीय आकांक्षा, पहचान के संकट और पृथक अस्तित्व को मान्यता देने से है, भारत के उत्तर. पूर्वी राज्यों में विभिन्न कारणों से अलगाववादी घटनाक्रम देखे गए हैं।
- उत्तर पूर्व की शेष भारत से भौगोलिक दूरी।
- ब्रिटिश काल में शेष भारत का इस क्षेत्र से सम्पर्क ना हो पाना।
- उत्तर. पूर्व में पृथक नृजातीय व नस्लीय संदर्भ।
- असंतुलित क्षेत्रीय विकास।
- सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में कमी।
- माओवादी विचारधारा का प्रभाव।
- वैदेशिक षड़यंत्र।
- सीमा प्रबंधन की समस्या।
- अलगावादियों और स्थानीय निवासियों में भेद ना कर पाना।
उत्तर पूर्वी भारत में जैसे-जैसे राज्यों का पुनर्गठन होता गया है, जनजातियाँ और बाहरी तत्वों के मध्य का संघर्ष बढ़ता गया है तथा साथ ही इन क्षेत्रों में कार्य कर रही जनजातीय परिषदें और इनके स्वशासन का लाभ सही ढंग से वितरीत नहीं हो पाया है जिसके परिणामस्वरूप 1980 के दशक से अब तक उत्तर. पूर्व में अलगाववाद की समस्या न केवल विद्यमान है वरन् उसकी व्यापकता व भीषणता दोनों में वृद्धि हुई है।
अलगाववादी समस्या का समाधान करने हेतु सर्वप्रथम देश के समग्र संतुलित विकास को प्राथमिकता देनी होगी, इसके लिए उत्तर पूर्वी भारत को आवागमन व संचार साधनों से जोड़ना होगा।